"मय के प्याले चार"(ग़ज़ल)
इन जुल्फ़ों को यार झटक कर मैं भी देखूँ
सूली पे इस बार लटक कर मैं भी देखूँ
देखूँ कैसा होता है कांटों का चुभना
कांटों में इक बार अटक कर मैं भी देखूँ
बेशक़ काफ़िर नहीं मगर तू यक़ीन कर
सर तेरे दरबार पटक कर मैं भी देखूँ
जीना मरना दो ही तो झंझट दुनिया में
ज़िन्दगी के द्वार फटक कर मैं भी देखूँ
अंधे हाथ बटेर लग गई मैं पछताऊँ
दरवज्जा कुछ बार खटक कर मैं भी देखूँ
नहीं झूम कर नाचा अबतक किसी साज़ पे
थोड़ा सा इस बार मटक कर मैं भी देखूँ
नशा इश्क़ का कैसा होता ये भी जानूँ
मय के प्याले चार गटक कर मैं भी देखूँ
Written by विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'
नहीं झूम कर नाचा अबतक किसी साज़ पे
ReplyDeleteथोड़ा सा इस बार मटक कर मैं भी देखूँ
Nice lines sir ☺️👍