"पतझर"(गीत)


ज्यों ही वसंत का अंत हुआ तब ही आरम्भ हुआ पतझर

निर्वस्त्र से वृंत खड़े सूने जा दूर गिरे पत्ते झड़कर


तब नव कलिकाएँ मुदित हुईं नव सृजन का कारण बनकर

भर गईं शाखाएँ पत्तों से फूलों ने कहा खुलके हँसकर


आरम्भ करें हम नवजीवन उन भँवरों को आमंत्रित कर

रसपान करें वे झूम-झूम दें शुभ संदेश परागण कर


लहलहा उठा शहतूत हरे पत्ते व मीठे फल पाकर

अमवा के बिरवे चहक उठे बौरइयाँ आईं जामुन पर

जब लगन धरी युवती निकली सखि संग मगन परिणय पथ पर


तो मेहंदी लगे सुकुमार पाँव में एकाएक चुभा कंकर

मेरे हृदय में शूल हुआ उसकी पीड़ा का अनुभव कर


क्या लगा आपको भी ऐसा कह भी दीजे रोकर-हँसकर

कन्या सोल्लास विदा करके हर्षित-उल्लसित नयन भरकर


चन्दो भाभी ने जौ बोए गंगा में जय जय शिव शंकर

लहरातीं फसलें खेतों में नभ में घनघोर घटा उठकर

कृषकाय कृषक को कँपा रहीं चहुँ ओर बिजलियाँ तड़तड़ कर


मैं दुबका हुआ अटारी में रहा इन्द्रदेव से विनती कर 

हे स्वर्गलोक के मठाधीश भय दूर करें रक्षक बनकर

Comments

  1. लहलहा उठा शहतूत हरे पत्ते व मीठे फल पाकर

    अमवा के बिरवे चहक उठे बौरइयाँ आईं जामुन पर

    जब लगन धरी युवती निकली सखि संग मगन परिणय पथ पर
    Bahut achhi git hai sir 🙏

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