"मनहरण घनाक्षरी"(कवित्त)

कैसा ये अजीब रोग,कैसे मतिमारे लोग।

पौष्टिक आहार भोग,ढूंढ़ रहे गैया में।


मुस्कुरा के मंद-मंद,गढ़ रहे व्यर्थ छंद।

खोज रहे मकरंद, ग़ैर की लुगैया में।


रहा नहीं दया-धर्म, बेच खाई हया-शर्म।

डूबने के हेतु कर्म,पोखरी-तलैया में।


आफ़तों से खेल रहे, मुसीबतें झेल रहे।

ख़ुद को धकेल रहे, शनि जी की ढैया में।

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