"मनहरण घनाक्षरी"(कवित्त)
कैसा ये अजीब रोग,कैसे मतिमारे लोग।
पौष्टिक आहार भोग,ढूंढ़ रहे गैया में।
मुस्कुरा के मंद-मंद,गढ़ रहे व्यर्थ छंद।
खोज रहे मकरंद, ग़ैर की लुगैया में।
रहा नहीं दया-धर्म, बेच खाई हया-शर्म।
डूबने के हेतु कर्म,पोखरी-तलैया में।
आफ़तों से खेल रहे, मुसीबतें झेल रहे।
ख़ुद को धकेल रहे, शनि जी की ढैया में।
Written by विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'
Superb 👍🙏
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