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"मैं"(कविता)

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प्रियतमा यदि गुलाब़ है , मैं खुली किताब़ हूँ । कहीं इश्क रूआब़ है , कहीं मैं ख्वाब़ हूँ । नदी को जवाब़ है , मैं मछलियां बेहिसाब़ हूँ । समंदर तक हिसाब़ है , मैं कहाँ लाजवाब़ हूँ ? अम्बर तक आफताब़ है , मैं तो इंकलाब़ हूँ । कहीं गिरे शराब़ हैं , मैं क्यूँ सैलाब हूँ ? कहीं गवयीं तालाब़ है , मैं सितारा जनाब़ हूँ । महफिल में शबाब़ हैं , मैं न कवाब़ हूँ । कहीं पाषाणी खिताब़ है , मैं कहाँ नवाब़ हूँ ? कहीं निःशब्दता नायाब़ है , मैं आखिरी दवाब़ हूँ । मिथ्या पे नकाब़ है , मैं स़च़ बेनकाब़ हूँ । न रातें नाकामयाब़ है , मैं अश्कें कामयाब़ हूँ । हालातें भी खराब़ हैं , मैं मृगतृष्णा बेताब़ हूँ । कहाँ खुशियाँ महताब़ है , मैं गुजारिशें ताब़ हूँ ! कहाँ मंजिलें सवाब़ है , मैं लघु हिसाब़- किताब़ हूँ !! Written by विजय शंकर प्रसाद

"जंग जारी है"(कविता)

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 जंग जारी है स्वयं को ज़िंदा रखने की अपनी साँसों को जकड़ के रखने की। साँसों का दामन  छूट ना जाए खुद को ज़िंदा रखने की जंग जारी है। जंग जारी है दो जून  रोटी की सारे शहर में पसरा सन्नाटा । चूल्हों पे है , मातम छाया पेट की आग बुझाने जंग जारी है। जंग जारी है इंसानियत को जिंदा रखने  मानव सभ्यता को बचाने की। सब की रगों में दौड़ रहा एक ही खून खून के रिश्ते बचाने जंग जारी है। जंग जारी है इस महामारी से जीतने की हम मनु की संताने इस धरा पर। एक जुट होकर लडेंगे हम अपने हौसलों से कोरोना को हराने की। जंग जारी है खुद से , खुद की विश्वास की लो बुझने न देंगे। हम जीते हैं सदा , हम जीतेंगे कोरोना को हरा , हम फतेह करेंगे। जंग जारी है , जंग जारी रहेगी जब तक हम जीत नही जाते। Written by  कमल  राठौर साहिल

"बरसात में बादल"(कविता)

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 कस्तूरी मृग से भागते-दौड़ते झाड़ी-झाड़ी सूंघते-चाटते यहाँ-वहाँ उछलते-कूदते हो जाएँ अदृश्य; और सुदूर विस्तृत वन के किसी कोने से फ़िर प्रकट हो जाएँ। रूपसी की स्याह घनी जुल्फ़ों से घिरे रुख़सार पर दौड़ जाए हसीन तबस्सुम तब उसे अपलक देख रही आँखें हो जाएँ चकाचौंध। गैस के मरीज़ से गरज पड़ें। खाट पे सोए भीत से शिशु का ज्यों निकल जाए पेशाब; बरस पड़ें -- रुक-रुक के,थम-थम के। Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"तंबाकू गुटखा"(कविता)

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हर गली हर शहर  नुक्कड पर,    मिल  रही  है  2  रूपमे  मौत। भारत मे करिबन 50 हजार से,    भी ज़ियादा लोग गुटखा खाने, की वजह  से मरते है। बडे तो।    ठीक  आजकल, के बच्चे भी।  गुटखा, चबाने  लगें  है।  इन्हें,    पता नही गुटका।  खाने  वाले, गम्भीर  बीमारियों को  न्योता।    दे  रहे  है।  गुटखा  चबाने  से, अस्थमा,  केंसर,  जैसी   बड़ी,    बीमारी।  के  चंगुल   में  फस।  जाते है और अंत, मे आप की,    ज़िन्दगी भर की कमाई  जमा। पूँजी खर्चहो जाती है। गुटखा।    है मीठा  ज़हर  इनकी लत से,  हमें खुद  को  रोक ना है और,    कीमती   जीवन   बचाना   है। Written by  नीक राजपूत

"वो परिंदे"(कविता)

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वो  परिंदे जो गांव की मिट्टी की  खुशबू को छोड़  गांव की आबो हवा को छोड़  शहर की तरफ उड़ गए थे  सपनों के शहर में अपने सपनों को साकार करने अपनों से दूर , दो जून की रोटी और  सपनों का बोझ ढोते  जिये जा रहे थे। वो पर कटे परिंदे , अब वापस लौट रहे हैं।  अपने गांव की ओर जब शहर की हवाओं में  जहर घुल गया। अपने गांव की  माटी की खुशबू के लिए  यह परिंदे वापस लौट रहे हैं। अपने सपनों को लहूलुहान कर  इस शहर को छोड़  वापस अपने गांव लौट रहे। Written by  कमल  राठौर साहिल

"एक चने ने"(कविता)

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 मेरे आँगन रोज सवेरे बुलबुल आती एक सच्च बोलो-सच बोलो की मधुर लगाती टेक मधुर लगाकर टेक मुझे हैरान करे कैसी खोटी बातें ये नादान करे झूठा और बेईमान भला सच कैसे बोले ज़हर बेचने वाला अमृत कैसे तौले मूरख पंछी मुझको कैसी सीख दे रहा नहीं चाहिये बिन मांगे क्यों भीख दे रहा ढूंढ़ कोई घर और यहाँ ना दाल गलेगी मीठी-मीठा बोली मुझको नहीं छलेगी दाना डाल दिया है खा या हो जा फुर सोच रहा क्या देख रहा क्यों टुकुर-टुकुर भड़काया तो पछताएगा रार बढ़ेगी जीवन भर नहीं भूले ऐसी मार पड़ेगी पंछी फुदक-फुदक कर बोला -- सच बोलो मेरे दिल ने कहा -- यार आँखें खोलो क्रोध पे पानी डाला एक परिंदे ने बदल लिया मन इस दुर्दांत दरिंदे ने पर उसके साहस को मैं नहीं रहा पचा एक चने ने भाड़ फोड़ इतिहास रचा Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"बताओ ना"(कविता)

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कुछ पूछूं क्या तुम बता पाओगे चलो मान लिया तुम्हे मुझसे प्यार है तुम मेरे कमियों के साथ मुझे accept कर पाओगे क्या चलो मान लिया तुम्हे मुझसे प्यार है दिन भर में रोज मेरा हाल पूछ पाओगे क्या चलो मान लिया तुम्हे मुझसे प्यार है अगर हम दोनो घूमने जाए कहीं तुम मेरे साथ comfortable feel कर पाओगे क्या और अगर चलते चलते गिरी मैं तो हर बार मुझे संभाल पाओगे क्या चलो मान लिया तुम्हे मुझसे प्यार है एक बात बताओ मेरे साथ वाली photo को अपनी whats App, Instagram, Facebook  या Other Application की सबसे प्यारी D.P. बना पाओगे क्या अगर हां तो मुझे भी तुम से प्यार है चलो मान लिया तुम्हे मुझसे प्यार है अगर बीमार पड़ी तो तुम मेरे घर तक आ कर हाल पता पूछ पाओगे क्या चलो मान लिया तुम्हे मुझसे प्यार है अपनी Family के सामने मुझे accept कर पाओगे क्या अगर हां तो मुझे भी तुमसे प्यार है Written by  लेखिका पूजा सिंह

"गूँज"(कविता)

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 अरमानों की  बस्ती में  तन्हाई की  गूँज सुनते है। बेदर्दो की  महफ़िल में  जख्म लिए  फिरते है।। मन है  बेकरारी में  फिर भी  मुक़म्मल  जी लिया  करते है।। Written by  कवि महराज शैलेश

"बाबा"(नवगीत)

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  टूटे टप्पर का ढाबा,पौली की तरेड़ जैसा। हो गया निस्पात बाबा, एक सूखे पेड़ जैसा। ठूंठ सी बहियाँ पे झूल,पींगें बढ़ाती पौत्री। सिहर कर निकली बगल से,भयभीत सी गंगोत्री। क्षितिज पर चन्दा खड़ा है, तिमिर से मुठभेड़ जैसा। हो गया निस्पात बाबा, एक सूखे पेड़ जैसा। अंग-अंग भेंट घात की,तार-तार होती चमड़ी। श्रम-स्वेद असीम पातकी,गांठ ना कोई दमड़ी। हलस कंधे धरे आए,लस्टपस्ट अधेड़ जैसा। हो गया निस्पात बाबा, एक सूखे पेड़ जैसा। Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"बेटियों की पहचान"(कविता)

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इकीसवीं सदी के इस भारत से ये प्रश्न है मेरा दे सको तो दो इस प्रश्न का उत्तर  हमें नित्य प्रति कोख में क्यों मारी जातीं है बेटियाँ ? क्यों वासना के चादर में लपेटी जाती है बेटियां? परिवार का बोझ कहार बन  उठाने लगी है बेटियाँ , हर छेत्र में खुद को आजमाने लगीं है बेटियाँ। धरती को रौंद डाला, आसमान भेद डाला , काली दुर्गा का रूप धरने लगी है बेटियाँ। घर की दहलीज से जो कदम निकले न थे , अब शमशान तक जाने लगी हैं बेटियाँ। घर का श्रिंगार थी ,माँ का दुलार थी , पिता की ढाल बन कर सजने लगी है बेटियाँ। खुद कष्ट सह कर  परिवार को हँसातीं  हैं  , नील कण्ठ बन कर  जीने लगी है बेटियाँ। चट्टनों को काटतीं है लहरों की धार से , घर की देहरी की ईंट बनने लगीं हैं बेटियाँ। वहशी दरिन्दों ने जिन्हें किया तार तार है , उन्हें भी जिन्दगी की साँस देतीं हैं बेटियाँ। बोझ समझ कर जिसे तूने मार डाला , आसमाँ से उतरी पवित्र दुआ है ये बेटियाँ। सतयुग से कल युग तक कई बार रुसवा हुईं , फिर भी हर युग की शान हैं ये बेटियाँ। हिन्दू की गीता हैं मुस्लिम की कुरान है , धरती पर उतरी हसीन शाम है बेटियाँ। बेटियाँ न होतीं तो दुनियाँ न होती , कुद

"सबके राम"(कविता)

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 मेरे राम , तेरे राम  सबके राम , कण कण में राम घट घट में राम समाया है खुद के अंदर झांक ले बंदे तुझमे राम समाया है जीवन की आपाधापी में  माया माया करता बंदा अपने अंदर ना झांके  तुमने राम भुलाया है राम नाम ही पार लगावे जीवन का मर्म समझाया है मर्यादा में रहकर  पुत्र धर्म निभाया है  दुष्टों का संहार किया सीता का मान बढ़ाया है मेरे राम , तेरे राम  सब में राम समाया है। Written by  कमल  राठौर साहिल

"स्मृतियां"(कविता)

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 कैसी है ख्वाहिशें जिंदगी की , दीये जलें और पतिंगें मंडरायें ! अंधेरी रातें नहीं ठगी की , सितारें छलें और चंदा सकपकायें । परछाइयों की गुजारिशें बानगी की , लम्हा -लम्हा ढलें और स्मृतियां छलकायें । कभी तो सिफारिशें सादगी की , जवानी पिघलें और इश्क जगायें । गति है नजारा संजीदगी की , हवा तले और क्या फरमाये ? बादलें और बारिशें मौजूदगी की - कहीं महलें और कुटिया, गायें । पीड़ा और टीसें गंदगी की , कैसे चलें और कहां जायें ? बातें नंगी और कहीं बेपर्दगी की , क्या भले और क्या अदायें ? शोरें और कंपकंपी  उगीं की , तंहा दिल क्या -क्या आखिर कमायें ? निःशब्दता अधखुली परवरिशें बेढंगी की , किसके गलें और कितना सतायें ? Written by विजय शंकर प्रसाद

"श्री राम"

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राम नाम  से है पावन  धरती वायु। आकाश  राम नाम  से मिले मुक्ती, राम है हरिद्वार राम नाम  है  मोक्ष, का द्वार करो राम, की भक्ति  राम, है हर कण में राम है हमारे जीवन। का  सार राम है भगवान। राम  है।  अभीमान राम  है हमारी, पहेचान।  करो राम के गुणगान राम ही नाम। से ही, होगा  जीवन  सरल, उद्धार, दो शब्दों का  प्यार  नाम  लेते ही। कई मुश्किले दूर  भागती पूरे होते, काम तमाम।  राम है मर्यादा, मान, राम नाम से पत्थरकी शिलाएँ भी। तैरती पुरषोत्तम है भवगवान राम। अपने राज्य का मुकुट है राम प्रभु, राम है  शत्रुओं, के क्षमादान  राम।  है संन्यासी,  राम,  है।  अविनाशी। Written by  नीक राजपूत

"लाचार"(कविता)

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नियत जन्म से गुनहगार नही होते।। हुस्न जलवे पे यु बेकरार नही होते।। इंसानियत ही मेरी पहचान है ।। वरना कब के दुनिया जला चुके होते।। सब मेरे अपने है किसको मैं धोखा दूँ। अपने ही पीठ पर कैसे खंजर मार दूँ।। मेरे आँखों मे जो मन्जर कैसे दिखा दूँ। मेरी तन्हाइयां तुम्हे कैसे उपहार दे दूं।। कर गुजरने का हौसला बहुत है ।। मगर यादे मेरी तबियत से बेगुनाह है।। मुजरिम नही थोड़े वक़्त से लाचार है। हवा का रुख बदलेगा................।। अभी थोड़े बीमार है...............।। Written by  कवि महराज शैलेश

"आहिस्ता-आहिस्ता"(कविता)

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तारों की छाँव में ले चल आहिस्ता आहिस्ता। ऐ रात की बेला तू ढल आहिस्ता आहिस्ता।। जुगनुओं ने जलना है आहिस्ता आहिस्ता। उनका दीदार करना है आहिस्ता आहिस्ता।। उनका नजरों को उठाना आहिस्ता आहिस्ता। जी भरकर के हमे देखना आहिस्ता आहिस्ता।। मखमली हवा चल पड़ीं आहिस्ता आहिस्ता। वन उपवन महक उठी आहिस्ता आहिस्ता।। Written by  कवि महराज शैलेश

"एकाकी"(नवगीत)

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अस्तांचल गया सूर्य, मंद पड़ा प्रकाश। नीड़ विहग लौट रहे, साँझ हुई उदास। भाव उमड़ घुमड़-घुमड़, धनु संधान रहे। और असहाय के यूँ,नौंचत प्रान रहे। सूनी चट्टान जहाँ, कोई नहीं पास। नीड़ विहग लौट रहे, साँझ हुई उदास। शंख सा आकाश है, गोधूलि जो उड़ी। पीर सी मीठी चुभन, सुखा रही पंखुड़ी। नीर नयन गहन अगन,रोकते उल्लास। नीड़ विहग लौट रहे, साँझ हुई उदास। मन की व्यथा उड़ेलें,स्वर-व्यंजन सारे। कण्ठ घुला क्रंदन है, दिवस दिखें तारे। जल विहीन छटपटात,मत्स्य सा उजास। नीड़ विहग लौट रहे, साँझ हुई उदास। Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"कान"(कविता)

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 घर से निकलो तो  कान बंद करके निकलो कान में रुई ठूस कर निकलो सारे प्रपंचो का आधार  खुले कान ही है कोई बातों का जहर  कानों में घोलकर तुम्हारी नींद  उड़ा देता है कभी अफवाहों की हवा  तुम्हारे कानों में घुसकर  हलचल मचा देती है। तुम जानते हो  दीवारों के भी कान होते हैं जब तुम स्वयं दीवारों पर  अपने कान लगाते हो भूचाल आ जाता है तुम स्वयं कानों की बातें सुनकर  विचलित हो जाते हो अपने कानों पर तुम नकेल नहीं कस पाते अपने कानों पर लगाम लगाओ अपने कानों पर बंधन रखो घर से जब भी निकलो  कानों में रुई ठूंस कर निकलो Written by  कमल  राठौर साहिल

"हम नहीं मानने को तैयार"(कविता)

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 अपने देश के लोग इस आपदा को अब तक नहीं हैं मानने को तैयार, डर रहा है केवल मात्र वही इंसान भुगत रहा है जो अभी इसकी मार। कुछ लोगों की नजर में बीमारी नहीं है बस कुछेक शातिरों का दुष्प्रचार, इसलिए सुरक्षात्मक कोई भी उपाय अपनाने से वो करते हैं साफ इन्कार। बहुत लोगों की नजर में है बीमारी मामूली सर्दी-जुकाम और बुखार, ठीक तो हो रहे हैं इसमें भी लोग हल्ला मचाया जा रहा है यहां बेकार। कइयों ने छोड़ रखा है ईश्वर पर ही अपनी जान की रक्षा का सारा भार, मौत आ भी जाएगी इस तरह उन्हें तो वो कर लेंगे प्रसाद समझकर स्वीकार। आयुर्वेदिक जीवन पद्धति का शुरू में कुछ लोगों ने किया था जमकर प्रचार, लेकिन स्थिति की भयावहता देखकर बदलने लगे हैं उनके भी अब विचार। हममें से बहुत सारे लोग हैं ऐसे जिनकी कमाई का है नहीं कोई पक्का आधार, पेट भरने की मजबूरी में ही ऐसे लोग काम पर निकलने के लिए हैं लाचार। राजनीति से जुड़े महानुभावों का इनमें है सबसे अलग ही जोशीला व्यवहार, जनता मरे या फिर भाड़ में जाए कहीं इन्हें केवल करना है सत्ता का व्यापार। महामारी फैलने पर सबके अपने तर्क और हैं सबके अलग-अलग विचार, परिस्थितियां बिगड़ती ही जाएं

"नया अंदाज"(कविता)

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 अब के वे मूल्य नहीं रहे , जीवन मूल्य तो था, पर ,उनके जीने का वह अंदाज तो अलग था। पक्के मकान भले न थे,खपरैल का घर तो था सो संग रहकर,सहन का अंदाज तो अलग था। कोई मुफलिस गुजरा है,संजीवन बनना तो था, वह नजरअंदाज न हो,वो अंदाज भी अलग था। कठिन दौर रहा हो,पर वह जीवन तो सरल था, सुख दुख साथ सहने का अंदाज वो अलग था। ।1। अब मूल्य है पर ,वह सब जीवन मूल्य बदल गये,  उन फ्लैट के दीवारों में जीने का अंदाज आ गया, गाँव की माटी साथ चौपाल चबूतरे गायब हो गये, खोये मैदान ,जिम में मशीनों का अंदाज आ गया। नजरअंदाज करना,बना है आधुनिकता का फैशन, सो  खून में  विकार ही ,खून का अंदाज आ गया। सब दिशाओं से आते कुटुंब के खास आयोजन में, अब पति पत्नी में फैमिली का नव अंदाज आ गया। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"हम तो हरवक्त तुझे याद किया करते हैं"(कविता)

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हम तो हर वक्त तुझे याद किया करते हैं ! सोते जगते भी तेरा नाम लिया करते हैं ! तेरी बातों से ही सुलझा हुआ था मैं इतना ! अब तेरी तस्वीर से ही,बात किया करते हैं ! कि हम तुम भी कभी साथ साथ रहते थे ! अब तुझे देखने को दिन रात तरसा करते हैं ! कभी वो रातें थी जब हम sms ही गिना करते थे ! तेरी आंखों से हम तारे ही गिना करते हैं !  हम तो हर वक्त, तुझे याद किया करते हैं !  हरदम मुझे हसांती थी प्यारी तेरी हसीं !   तुझ से बिछड़ कर है सनम कैसी बेबसी !   तेरे साथ पढ़ना तेरे साथ चलना !   तेरी यादों में तेरी राह तका करते हैं ! हमतो हर वक्त तुझे याद किया करते हैं ! Written by  आशुतोष मिश्र 'सांकृत्य'

"बिगड़ा माहौल: कोरोना की हकीकत"(कविता)

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कोरोना की हकीकत व बचाव को व्यक्त करती मेरी यह रचना  बाहर माहौल बिगड़ा है दुश्मन ज्यादा  तगड़ा है  तुम घर में  नहीं रहते हो इसी बात  का लफड़ा है तेरी गफलत  के  कारण दुश्मन  छाती  पे  चढ़ा है हलके में मत लो  इसको ये जान लेने  को  अड़ा है कहीं ढूंढने नहीं जाना हैं बाहर दरवाजे पे खड़ा है जिसने  भी की  है गलती वो  अस्पताल  में  पड़ा है जायेगा वो सीधा हरिद्वार जिसको  इसने  पकड़ा है उतरता  जब गले के नीचे खाता  तुरंत  ये फेफड़ा है कोई  मास्क पहनता नहीं यही  तो हमारा  दुखड़ा है मत आने दो घर  के अंदर चाइना का  यह भगोड़ा है आफत  तुमने खुद  बुलाई हाथ नहीं धोने का रगड़ा है कोई तोड़ नहीं इसका यहां आफत भरा  यह लफड़ा है दो गज  दूरी अब है जरूरी बचाव  यही  थोड़ा-थोड़ा है Written by  कमल श्रीमाली(एडवोकेट )

"तेरा साथ"(कविता)

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 18 अप्रैल शादी की वर्षगांठ के उपलक्ष में विशेष  हम आदम - हब्बा नहीं फिर भी एक दूजे के बिना अधूरे हैं। ना हम लैला - मजनू  ना हम हीर - रांझा ना हम रोमियो - जूलियट हम पति-पत्नी है। एक साइकिल के  दो पहियों की तरह  एक ही धुरी पर  एक साथ घूमते हैं। सुख - दुख में साथ रहते हैं एक दूजे की भावनाओं को समझते हैं। जिंदगी की धूप छांव में  साथ चलते हैं। कुछ सालों पहले  आज ही के दिन  हम परिणय सूत्र में बंधे। आज का दिन  हम दोनों के लिए खास है। मुझे स्मृतियों में  अपनी पहली मुलाकात  आज भी याद है। और भी अनगिनत यादें  मेरी स्मृतियों में  हमेशा जिंदा रहती है। जब कुछ पलों के लिए  तुम मुझसे दूर होती हो। अपनी यादों के साथ  साए की तरह  सदा मेरे साथ रहती हो। Written by  कमल  राठौर साहिल

"कलेजे की बेबसी"(कहानी)

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 कलेजे की बेबसी ,,माँ,,,,,,, माँ,,,,,, मै  आरहा हूँ माँ ,,,,,, ,मै आरहा हूँ माँ ,,,,,,,,,,,,चीख रहा था साहिल। उसकी चीख की गूंज ने  दिल्ली के नुमाइन्दों की कुर्सी तक हिला कर रख दी थी। लोक सभा का कार्य कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया था। प्रधान मंत्री जी खुद इस केस को हैण्डल कर रहे थे। उनकी सख्त हिदायद थी कि '' साहिल की फांसी से पहले इस केस से जुड़ी कोई खबर  बाहर मिडिया में  नहीं आनी  चाहिए। '' इसी बात ने  मीडिया में तहलका मचा रखा था कि आखिर ऐसा क्या गुनाह किया है साहिल ने। पेपर ,मैगजीन ,रेडियो ,टी वि सब  एक ही जगह रुक गए थे।पूरा देश साँसे  रोके इस कार्य कर्म की गति विधियों को देख ,सुन रहा था।   पहली बार फांसी का लाइव शो दिखाया जाने बाला  था। ऐसा अनोखा केस न कभी देखा, न सुना गया था। स्तब्ध था पूरा देश ,,,,,,                     दिल्ली के   प्रगति   मैदान में पहली बार मौत का  नजारा जशने आम था। भारत के इतिहास में पहली बार खुले मैदान में फाँसी की सजा दी जा रही थी। लाखों के संख्या में भीड़ जमा थी।  सब की नजरें स्टेज पर लटकते फाँसी के फंदे पर थी और मन  हजारों सवालों के बीच घि

"मंज़िले-मक़सूद"(कविता)

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 तेरे फ़ैज़ में डूबे रहें शबो-दिन ये जिस्मो-रूह इस कद्र कि भूले भी उबरना न हो मुमकिन न रोक पाए अब हमें कोई दरो-दीवार दीवानावार दौड़ के आएँ तेरे क़रीब हम खाली कटोरा लिये आएँ तेरे दरबार तू भर दे लबालब इसे रहमत से करम से तेरे दिये हुए को यूँ रक्खें संभाल के कि उसमें इज़ाफ़ा हो और फ़िर आएँ दोबारा दुनियावी कारोबार हम करते रहें बेशक़ ये सर रहे हरदम तेरी ड्योढ़ी तेरे दर पर कहता है महवे-बालिशे-पम्बए-कमख़्वाब उठ बैठ तसव्वुर में देरी काम की नहीं तेरे हैं तेरे ही रहें तुझमें समा जाएँ बस इतनी तमन्ना है ख्वाहिश है गुजारिश है तुझपे है भरोसा मदद तेरी से हम इक रोज़ पा जाएंगे वो मंज़िले-मक़सूद बिलाशक़ Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"उच्छ्वास: मिलन के संताप का"(कविता)

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इन झील सी ऑखों में आँसुओं भावनाओं से, कंपन में झूलती लहरों का गुबार जब भी रहा, तभी इस पूनो के चाॅद सी लगने वाली मुख की, हँसी पे बलखाती गेसुओं के दर्द में उलझा रहा। ।1। बडी देर तक डर समाया रहा मुझमें जाने कयूॅ, पिय मिलन में संताप का उच्छ्वास गिनता रहा, पता नहीं वो दिल से उठी हूक थी,पर थी बेचैन, यादों की चादर पे नींद के बहाने मैं जागता रहा। ।2। उफ भी मयस्सर न हुआ ,सोच इस बेहाली पर तुम क्या बीती होगी,यही अहसास करता रहा। पर कपोलों पर, जरा भी शिकन न दिखी मुझे, तुम्हारी इस जादूगिरी पर बस यूँ दाद देता रहा। ।3। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।