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"किसान है क्रोध"(कविता)

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निंदा की नज़र तेज है इच्छा के विरुद्ध भिनभिना रही हैं बाज़ार की मक्खियाँ अभिमान की आवाज़ है एक दिन स्पर्द्धा के साथ चरित्र चखती है इमली और इमरती का स्वाद द्वेष के दुकान पर और घृणा के घड़े से पीती है पानी गर्व के गिलास में ईर्ष्या अपने इब्न के लिए लेकर खड़ी है राजनीति का रस प्रतिद्वन्द्विता के पथ पर कुढ़न की खेती का किसान है क्रोध ! Written by  गोलेन्द्र पटेल

"संक्षिप्त परिचय(गोलेन्द्र पटेल)"

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गोलेन्द्र पटेल(जन्म : 5 अगस्त ,1999 ई.)  प्रसिद्ध युवा कवि , कथाकार , आलोचक , ई-संपादक व दिव्यांगसेवी हैं। कोरोजीवी कविता को समृद्धशाली बानने वाले नवांकुर कवियों में गोलेन्द्र पटेल का नाम विशेष स्नेह एवं वात्सल्य भाव के साथ लिया जाता है। गोलेन्द्र जी का जन्म 5 अगस्त सन् 1999 ई. में उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के अंतर्गत मुगलसराय तहसील (ग्राम-खजूरगाँव) में एक गरीब कुर्मी परिवार में हुआ है। आपके पिता का नाम श्री नंदलाल और माता का नाम श्रीमती उत्तम देवी है तथा आपकी एक छोटी बहन और दो छोटे भाई हैं। आपके पिता मजदूर हैं। गोलेन्द्र जी बचपन से ही पढ़ने में ठीक-ठाक हैं। आपने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने गाँव के प्राथमिक विद्यालय एवं पूर्व माध्यमिक विद्यालय एकौनी से प्राप्त करने के बाद हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की शिक्षा प्रभु नारायण राजकीय इण्टर कॉलेज रामनगर वाराणसी उ.प्र. से प्राप्त की। वर्तमान में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कला संकाय में स्नातक अंतिम वर्ष में हिंदी ऑनर्स से अध्ययनरत हैं। सन् 2018 से दिव्यांग एवं दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के लिए सेवारत हैं आप दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के लिए आचार्यो

"नौजवा इश्क़"(ग़जल)

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 कोई दाद, कोई खुजली, कोई खाज निकले मेरे   दोस्त   सारे   कैसे   धोखेबाज़  निकले जो   करता   था  मेरी   तारीफ   मेरे  सामने मेरी पीठ पीछे कैसे उसके अल्फाज निकले कब  तक  झूठी  हां में हां  मिलाओंगें  उसके कभी तो उसके विरोध में भी आवाज निकले सारे  के  सारे  नौजवान   इश्क़  के  मरीज हैं  कोई तो भगत सिंह जैसा अकड़बाज निकले सांप निकले फिर लाठी पीटती,पुलिस हमारी जेब गर्म हो तो,कैसे कातिलों से राज  निकले झूठे डूबे  रहे उसकी  मोहब्बत  में आज  तक हमें  पता ही ना चला  वो कब  नाराज निकले कभी फटी टी-शर्ट में साइकिल चलाता था वो वजीर क्या बना, गजब  उसके अंदाज निकले किला फ़तेह कर लिया था उस अकेले शेर ने सबने बुजदिल समझा,तुम तो जांबाज निकले Written by  कमल श्रीमाली(एडवोकेट)

"होली तेरे कितनें रंग"(कविता)

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  अपनी आँखों मे मोहब्बत के रंग भरे, ढोल नगाड़े संग पर्व का स्वागत करे। आओ मिलकर खेलें हम होली चारो। दिशाओं  में  फैलाए  प्यार की बोली। उत्साह  भरा  त्योहार  आया फागुन। संग रगों का मेला, आया  होली  तेरे, कितने रंग होली, खेलने को दिल, में, जागी उमंग नफरत, को हे हमें आग। लगानी  अबीर गुलाल की भभूतको। गालों पर  लगानी। हस्ते गाते  होली, है मनानी गले मिलकर कड़वी बातो। को  विष  समझ  कर  हे  पी  जानी। एक दूसरे के प्रति प्यार स्नेह  मशाल, जला  कर  हमें एक दूसरे  के संग है, होली मनानी सभी रंगोसे जीवन को। साझाये  भाईचारा।   बढा वा  दे कर, रिश्तों  को रंग लगाएं आँगन को हम, खुशियों,  से  सजाएं   इस   दिन को। बल्कि, हर दिन  को यादगार  बनाएं।  Written by  नीक राजपूत

"हम दीवाने"(कविता)

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देखा तुम्हे दिल से निकली हाय। अप्सरा सी खूबसूरत हो तुम।। देखो चाँद निकलकर आया है आज।। नजर भरकर देखता हूँ तुम्हे।। कैद कर लूं तुम्हे अपने आँखों में।। पर पलके भी झपकती नहीं आज।। हम दीवाने मुशायरे है जनाब आपके।। थोड़ी इज्जत बक्श दोगे जो हमें।। इस महफ़िल में सर झुका देगें आज।। मेरे वो जो सनम अकेले बैठे है ऐसे।। दीवाने खाश नजरों से देखें तुम्हे बस ।। ये उदासी चेहरे पे तुम्हारे कैसी है आज।। आज न शिकवा करो हमसे तुम दिलरुबा।। धड़कन धड़कने दो,दो जिस्मों में तुम ।। आओ रूह को हम एक कर देअपने आज।। Written by  कवि महराज शैलेश

"इसलिये"

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दर्दे-दिल दर्दे-जिगर का किस तरीक़े हो बयां क्या हसीं खाया है धोखा तू कहाँ और मैं कहाँ तूने तख़्ती पर लिखी खुरची इबारत इस तरह मेरे दिल पे आज भी क़ायम खरौंचों के निशां मैं तो मैं ही हूँ मगर वो और भी दिलदार होगा इसलिये तेरे वो सारे ख़त तुझे लौटा रहा हूँ मुझसे ज्यादा कोई तुझको और करता प्यार होगा लिख लिया करती थी मेरा नाम अपने हाथ पर और इशारा आँख से करती कि मैं देखूँ उधर फ़िर अचानक क्या हुआ ये सोच कर हैरान हूँ क्या मिला तुझको मेरे जख़्मों के टांके काट कर ये मरीज़े-इश्क़ कितना और यूँ लाचार होगा इसलिये तेरे वो सारे ख़त तुझे लौटा रहा हूँ मुझसे ज्यादा कोई तुझको और करता प्यार होगा Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"होली"(कविता)

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संविधानों और सभ्यता तक रंगमंचें बेदखली , होली -होली रटते - रटते मुरझायी और खिली कली । पिचकारी से यादों में आती खलबली , राधा खुशियाँ हमारे संग मनाने चली । कहीं अटकलें सनसनी में है बली , महलों में हवा से ख्वाहिशें बावली । उलझी जिंदगी में भी खुशियां पली , कहीं तस्वींरें असली या है नकली । कहा नहीं कि दिल न मनचली , शुरू किया आगे बजाना अब डफली । गीतों और भावों में  नहीं छली , आग में होलिका  की भी बलि । हकीकतों से जलजला और  मछलियां उतावली , शमां गलना भिक्षुओं हेतु जाहिर जंगली । वेदनाओं से जमीरें द्वंद्वों में  नुकीली , हारे राही तो विजेता की गली । अंधेरा छा गया तो रातें खली , चंदा सितारों से की है चुंगली । सूरज तले शब्दोत्सवों में चिड़ियां भली , इश्क की नदी में तैरा मुरली । मृगतृष्णा की भी यहीं प्रतियाँ जली , सरसरी नजरों में गुलामी हीं ओखली । अन्नदाताओं में दिनदहाड़े कैदी थी सुरीली , लौटाओं जर्रा -जर्रा लम्हा - लम्हा रंग-बिरंगी हितकारी तब्दीली । Written by विजय शंकर प्रसाद

"होली की उमंग"(कविता)

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खुशियों का त्योहार है होली रगों का नाम है होली अपनो के संग है होली रंगों का बौछार है होली रगों के संग है होली दुश्मनों का नाम है होली जिससे बदनाम भी है होली रंगों का बहार है होली रंगों का पैगाम है होली अपनो के संग हो होली गीतो की शान है होली दुश्मनो से प्रेम बोल है होली गुलाल का उमंग है होली अपनो का अरमान है होली रंगों की शान है होली अपनो के संग हो होली रंगों का पैगाम है होली अपनो का उमंग है होली खुशियों का त्योहार है होली Written by  #लेखिका_पूजा_सिंह

"होली"(दोहे)

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 होली होली सब करें हो ली बहुत उदास । रो ली कितना आज मैं कंत नहीं जब पास  । । । ।1 । । रंग डारन आई ती किसन दिखे ना पास । पीर पगी पलकन भगी होके सकल उदास  । । । ।2 । । मलते खूब गुलाल हैं डाल घूंघटा हॉथ  । होली खेल अघात नहिं कितनऊं नावैं माथ  । । । ।3 । । रंग लिये राधा खडी़ं तकें किसन की गेल  । हरी कहूं अनते रमें भयो खेल सब फेल  । । । ।4 । । Written by डा० अरुण नागर

"फगुआ"(कविता)

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तरह तरह के रंग, खुशियों की बौछार। रंग डालो मीत पर,थोड़ा लेके के प्यार।। होली के रंग संग पिया, फगुआ खेलत बहार। भीगी मोरी चोली सजनवा,मोहे छेड़े संग गुलाल।। आज न बच पावे गोरी, हम फगुआ  खेलब आज। होली के रंग डालब, भिगों देब चोलिया तोहार।। मेरा,श्याम देखो राधा, तू मन मीत हमार। अबकी फगुआ खेलब राधा, मथुरा व्रन्दावन धाम।। धूम मची बरसाने में,शुभ दिन आयो आज। कान्हा मेरो होली खेले,संग साखियों के साथ।। मीरा के रंग में कान्हा,प्रेम समर्पण आज। खुद भीगी है बावरी, कान्हा को ढूंढे  आज।। छलिया तो है पास खड़ा,नैनो को छल के आज। खुद तो सब को देख रहा,खुद अदृश्य है आज।। छुप छुप के रंग बरसावे,मोहे मिल जावे आज। माखन का भोग लगाऊँ,सुन विनती  मेरी आज।। होली का रंग लगा के,कान्हा अंग लगा ले आज। मेरी सफल साधना हो जाये,मुझको रंग डाले तू आज।। Written by  कवि महराज शैलेश

"मैं पल पल"(गीत)

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फूल नहीं, हूँ खार लिये मैं दिल में तपता प्यार लिये मैं काया की सुंदर नैया औ' यौवन की पतवार लिये मैं साँसों के तारों से अपना मृत्युजाल बुनता रहता हूँ मैं पल पल घुनता रहता हूँ । कैसा मूरख भरमाया मैं जाने कहाँ चला आया मैं धूप यहाँ झुलसे देती है अगणित पेड़ों की छाया में भट्ठी के तपते बालू में मक्की सा भुनता रहता हूँ मैं पल पल घुनता रहता हूँ । जब सारा मंजर बदल गया और अस्थि पिंजर बदल गया तो मित्रों का व्यवहार उलट हाथों में खंजर बदल गया  पुष्पों की अभिलाषा लेकर कांटे ही चुनता रहता हूँ मैं पल पल घुनता रहता हूँ । गीदड़ बना रहे हैं सरहद पर्वत भूल रहे अपना कद कांटेदार झाड़ियों में क्यों छाया ढूंढ़ रहा है बरगद भारत की नियति-नीति पर सर अपना धुनता रहता हूँ मैं पल पल घुनता रहता हूँ । Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"रंगें"(कविता)

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चंदा रातों की काली छाया में ,  नदियों की दृष्टि पहाड़ों में । कटौती नहीं कहीं माया में , समंदर तक सिमटी  बांहों में । दिलों की तो छत्रछाया में , धरा कहां थी गुनाहों में ? जिस्मों की रंगतें पराया में ,  जंगली ख्वाहिशें तन्द्रिल गुमराहों में । दर्पणों के पीछे दाया में , मोड़ें तो ठहराया हमें राहों में । दीवारें -खिड़कियां  भी दरिया में , बंदिशों की निशानी आहों में । कवायदें कांचों की चुड़ियां में , कालिमा हीं तो अथाहों में । रेतों पे प्यासी मछलियां में , मरी न कहानियां चाहों में । सितारों की तकदीर परियाँ में , मंजिलों तक ठिकाने अनचाहों में । होली में कामिनी हथकडियां में , हरी - गुलाबी रंगें पनाहों में । Written by विजय शंकर प्रसाद

"बसंती पवन"(ग़जल)

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  उमंग में तरंग में,बादलों के संग में। उड़ जाऊ मैं ऐसे,बसंती पवन में।। रोके न कोई ,टोंके न कोई। फिसल जाऊ चाहे,पगडंडियों में।। नजर सामने है,पेड़ पौधे जमी में। खुला आसमा है,हुश्न उतरा जमी में।। मनोहर छटा है,हुश्न की ऐ अदा है। खेतों में लहराए, फसल भी हरा है।। कमरबंद लहरा के,हुश्न इठला के। मिलने चली है,मुझे वो बुला के।। मोहब्बत में देखो,सुध बुध भुला के। दिल को मेरे वो,दिल से लगा के।। परछाइयों से,चेहरा छुपा के। जल्दी में जैसे,खुद को बचा के।। पगडंडियों से,दौड़ लगा के। चला इश्क़ देखो, छुप छुपा के।। खेतों में पानी,जुल्फों में रवानी। महलों की रानी,बनी वो दीवानी।। है चित्र में जो,लिखी वो कहानी। लगती है जैसे,परियों की रानी।। है खूबसूरत, मगर ये जवानी। चेहरा जो दिखता,मैं लिखता कहानी।। तेरे रूप का मैं, करता बखानी। सवंर जाती मेरी,रूठी जिंदगानी।। Written by  कवि महराज शैलेश

"पुतला"

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खुशामदी राहतें क्षति है , परिस्थितियों का पुतला हिला । मर्यादा की परिणति है , सीता से यादगारी मिथिला । शून्यता अलबत्ता सृष्टि है , क्या रेतों पे मिला ? सहते -सहते हिस्सा बगावती है , क्या रहा बंजारा सुरीला ? अदा चकाचौधी नियति है  कबिले में नहीं उर्मिला । भावी बादशाहतें शरारती हैं , लक्ष्यों तक कैदी कोकिला । जहर तो पुष्टि है , सो व्याभिचारी आखिरी जहरीला । सुधा तो दृष्टि है , खूंट्टी हेतु कील नुकीला । वकालते अकारण ज्यादती है , फैसला भी तो ढीला । चंदा मानों कटी -कटी है , काया कहने को रसीला । चहेते तक बनावटी हैं , सुना नहीं क्या रंगिला ? भूखी नदियां बहती है , प्यासी मछलियां होना सिलसिला ! Written by विजय शंकर प्रसाद

"हरियाणवी गीत"

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म्हारे छोरे कै नजर लगी, किसी दुसट पडोसन की तडकै। के बैरण नै जुलम करे ये, घर आल़ी का जी धडकै। घणा अँधेरा घुप्प छा गया,कालबली के रास रचै। अनहोणी नै टाल़ रामजी,आँख मेरी बाईं फडकै। सनन सनन सी पौन चलै है, घूँघूँघूँघूँ पेड करैं। घटाटोप छाए सैं बादल़,अम्बर म्हं बिजल़ी कडकै। हुया करै था भाईचारा, लदे जमाने दूर कितै। किसा टेम आ गया, मरैं सैं आपस ही म्हं लड लड कै। अनपढ थे तो मान करैं थे,पढ लिख कै नै ऊत हुये। बापू सही राह की कहता, बेट्टा अम्मा पै भडकै। Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"अंतिम चेतावनी"

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ना रुकूंगा, ना झुकूंगा, यदि तलवार चली गर्दन पर, धड़ मेरा संग्राम मचाएगा।  खुनो की होली होगी, हाहाकार मचेगी रन भूमि में, यदि रथ जिधर मुड़जायेगा।  सुनो ओ गीदड़ो के झुण्ड, यदि ललकारा शेर को, तुम्हारा वर्त्तमान क्या? भविष्य भी पछतायेगा।  छल से दूर किया योद्धा को, ग्लानि नहीं है आँखों में, यदि पिता नहीं तो क्या ? पूत रणभेरी बजायेगा।  कदम रखा हूँ रणभूमि में, कहाँ, कैसी है विहु गीदड़ो की? यदि चढ़ा बाण धनुष पर, हर चक्रविहु खंड-खंड होजायेगा।  वीर पुत्र हूँ, ना जख्म से विचलित होता, मृत्यु का सिंगार हूँ करता, यदि धराशाही हुआ तो क्या ? वीरगति प्रापत किया कहलायेगा।    आशीर्वाद शुभद्रा मैया का, भुजाओ में बल पिता अर्जुन का, तिलक खु से स्वम किया, अंतिम चेतावनी देता अभिमन्यु, ठहर जा, सम्भल जा, नहीं तो कतरा-कतरा लहू, मिट्टी में मिलजायेगा।  नर-नरमुंडो की ढ़ेरी लगेगी, लह-लहूलुहान नदी बहेगी, त्राहि-त्राहि-माम रणभूमि में क्या? पूरी धरती पर त्राहि-माम मच जायेगा। Written by  #atsyogi

"तितलियां"(कविता)

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आईना और हैं किरदारों का मामला , कामुकों हेतु सर्पों का भी सिलसिला । होली के लम्हों में कहीं उजला गमला , कहीं फूलों के संग परछाई भी जहरीला । जिस्मानी हालातें करते हैं हमें इत्तला , दिलों तक रंगें यूं उछला- पसरा  पीला -नीला । आग भी है बंजारा जिंदगी तक तबादला , अनर्गलकारी दशा और दिशा में काफिला । भीड़ो़ में अकेली थी तितलियाँ चंचला , कलयुगी नागिनों तक अक्षरशः ख्वाहिशें दाखिला । आदमी हेतु इश्क तक बढा जलजला , हवा में नशा और कहाँ पे   महिला ? प्यासी मछलियां और अंदरखाना भी कुचला -कुचला , झूठी है कहानी और सुधि भी ढीला-ढीला । पानी-पानी रटते-रटते कहीं नहले पे दहला , भटका -भटका परिंदा  से जर्रा-जर्रा  शर्मिला । जीता नहीं क्या ख्वाबों की बला , क्यूँ मन्दिरों के पत्थरों तक हिला ? तौबा-तौबा करनी-भरनी भी माना आखिर कला , द्रौपदी और मेनका  तक हमला छिछला । रातों में बादलों का कितना चला , कहाँ नहीं प्रिये मौतों का टीला ? दिनदहाड़े नदियाँ  गवाही   क्या अलबत्ता अमला , समंदर में मचलती  लहरों से  मुकाबला ! Written by विजय शंकर प्रसाद

"झूठी मोहब्बत"(कविता)

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  दर्द काफी है और कितना सताओगे। क्या मेरी जान-जान लेकर ही जाओगे।। अब फिर बस करो नही तो पछताओगे। मुझे दफना कर फिर खुद जी पाओगे।। अब और कितना खुद को गिराओगे। बोलो फिर नजर कब हमसे मिलाओगे।। शर्म हया छोड़ फिर बेवफा कहलाओगे। कब्र पर मेरे फिर मेरी वफ़ा लिखवाओगे।। झूठी मोहब्बत कब तक फिर दिखलाओगे। मेरे मरने के बाद फिर दिल किसी और से लगाओगे।। बस की बात नही तुम क्या मोहब्बत निभाओगे। छोड़ कर हमें फिर देखेंगे तुम कैसे रह पाओगे।। Written by  कवि महराज शैलेश

"बाक़ी"(कविता)

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अभी-अभी तो आकर बैठा सारी रात गुजरना बाक़ी इतनी जल्दी क्या है तुझको थोड़ा और ठहर ना साक़ी मन के घाट नहाने वाले थोड़े से बड़भागी देखे तन के तीर तैरने वाले अधिकांश अनुरागी देखे सच्चे मोती लाने खातिर गहरे झील उतरना बाक़ी इतनी जल्दी क्या है तुझको थोड़ा और ठहर ना साक़ी बहुत बड़ी भागीदारी की ख़ुद अपनी बरबादी में अबतक रहे नाचते बेशक़ बेगानों की शादी में जब चेते तो देर हो गई अब नाख़ून कुतरना बाक़ी इतनी जल्दी क्या है तुझको थोड़ा और ठहर ना साक़ी पहली फागुन की रुत आई नाची देवर संग भौजैया अगड़ पड़ौसी लगे झूमने ताक धिनाधिन ताता थैया गुस्से में भर सासू बोली तेरे पंख कतरना बाक़ी इतनी जल्दी क्या है तुझको थोड़ा और ठहर ना साक़ी Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"गुजर जाएगा"(कविता)

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दौरे मुश्किल है, तो गुजर जाएगा, बाद स्याह रात, कल सहर आएगा।  गुल जो बिखर गये गुलशन के आज, गुलिस्ता फिर कल सवर जाएगा।  सच बदलता नहीं मुकर जाने से आकुल, क्या हुआ जो तू मुझसे नजर छुपाएगा।  हौसला है तो हर ख़ुशी है कदमो पे, बढ़ा कदम तू सब कर गुजर जाएगा।  मौत तो आनी है, इक रोज सभी को, तो क्या, वक्त से पहले ही गुजर जाएगा।   Written by आनंद आकुल

"बेटियां"(कविता)

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शंभल जाओ ऐ चमन वालो।। की बदल गई हवा है।। बेटों की थी, अब बेटियों की दुनिया है।। अधिकार भी ,बराबर का अब हिस्सा है।। मैं नही अबला न ही मैं बाला हूँ।। खुद के पैरों पे खड़ी एक ज्वाला हूँ।। मैं राधा तेरे मन की,एक रूप दुर्गा माँ हूँ।। काली का भी रूप मेरा,मैं ही ब्रह्माण्ड हूँ।। मैं ने जन्मा इंसान को,दर्द से बेहाल हूँ।। हलक में चीख खून से लालमलाल हूँ।। तुम इंसान देखो मैं कितने बुरे हाल में हूँ।। मैं तुम्हारी बहन , बेटी , माँ , ही तो हूँ।। Written by  कवि महराज शैलेश

"दिलेनादानी"(कविता)

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  चेहरे को पढा तो समझा नहीं राही , ओठों पे निःशब्दता तो करना पड़ा गुजारिशें । नदियों के साहिलों पे  दिलेनादानी में माही , नयनों की आतुरता में ख्वाहिशों की बारिशें । चंदा की छाया के पीछे मेरी स्याही , कागजों पे काल्पनिकता में कैदी क्या घिसे ? इश्क में लम्हों में रची आहिस्ते -आहिस्ते तबाही , अभिसारिका की अर्जी से यादों की टीसें । भावों तक मोतियों को चुनौती दिया बेगुनाही , दुनिया में नेपथ्यों तक सिलसिला में शीशें । समंदर से आशिकी और रंगमंचों तक शहंशाही , कुदरती पिपासा में मछलियां भी रिशें । बेपर्दगी छिपाने हेतु आंखें मींचे वाहवाही , लूटने और लुटाने में क्यूँ चढा पालिशें ? माटी के पुतलों सा जनता भी कराही , फूलों से कांटों तक कैसी है मजलिसें ? ये हवा न झूठी और खुशबू करते उगाही , माली की बगिया तन्हाइयों की परवरिशें । तुफानों से खेलना हमारे लिये हृदयग्राही , क्यूँ आखिर मनाही और क्यूँ नालिशें ? Written by विजय शंकर प्रसाद

"पतझर"(गीत)

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ज्यों ही वसंत का अंत हुआ तब ही आरम्भ हुआ पतझर निर्वस्त्र से वृंत खड़े सूने जा दूर गिरे पत्ते झड़कर तब नव कलिकाएँ मुदित हुईं नव सृजन का कारण बनकर भर गईं शाखाएँ पत्तों से फूलों ने कहा खुलके हँसकर आरम्भ करें हम नवजीवन उन भँवरों को आमंत्रित कर रसपान करें वे झूम-झूम दें शुभ संदेश परागण कर लहलहा उठा शहतूत हरे पत्ते व मीठे फल पाकर अमवा के बिरवे चहक उठे बौरइयाँ आईं जामुन पर जब लगन धरी युवती निकली सखि संग मगन परिणय पथ पर तो मेहंदी लगे सुकुमार पाँव में एकाएक चुभा कंकर मेरे हृदय में शूल हुआ उसकी पीड़ा का अनुभव कर क्या लगा आपको भी ऐसा कह भी दीजे रोकर-हँसकर कन्या सोल्लास विदा करके हर्षित-उल्लसित नयन भरकर चन्दो भाभी ने जौ बोए गंगा में जय जय शिव शंकर लहरातीं फसलें खेतों में नभ में घनघोर घटा उठकर कृषकाय कृषक को कँपा रहीं चहुँ ओर बिजलियाँ तड़तड़ कर मैं दुबका हुआ अटारी में रहा इन्द्रदेव से विनती कर  हे स्वर्गलोक के मठाधीश भय दूर करें रक्षक बनकर Written by  विद्यावाचस्पति देशपाल राघव 'वाचाल'

"फ़िज़ूल की बातें"

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 ये लोग जो इधर-उधर की बातें करते हैं, सब के सब फ़िज़ूल की बातें करते हैं  । ख़ुद के गुनाह पर्दे में ऱखकर घूमते हैं जो, वहीं सब मेरी हर भूल की बातें करते हैं । आईने जो दिल के अपने साफ़ ना कर सकें, दर पर अपने जो इंसाफ़ ना कर सकें । गिरेबां ख़ुद का मेला पड़ा हैं जिनका, वो लोग मेरे चेहरे पर पड़े धूल की बातें करते हैं । ये लोग जो इधर-उधर की बातें करते हैं, सब के सब फिज़ूल की बातें करते हैं । Written by  #अविनाशरौनियार

"मन का मैल"(कविता)

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 मन जब करता है प्रेम किसी से, अनन्त, अटूट, अपार प्रेम, तब हो जाता है सब कुछ प्रेममय। यह धरा, पवन, आकाश, दोनों जहां, यहां तक कि इस सृष्टि के  प्रत्येक जीव, लगने लगते हैं प्रेममय। हर बन्धन से परे, समस्त रिश्तों से विलग, कहीं नहीं होता क्रोध ना घृणा किसी से, लगाता रहता है मन डुबकियां प्रेम के समंदर में। कभी विरह की पीर से कराहता मन, तो कभी प्रीतम के निकट होने के आभास पर मुस्कुराता, दुनियादारी की रस्मों को झुठलाता मन, निभाता रहता है अपनी ही दुनिया की अनगिनत रस्में। पर जब तन बंध जाता है सांसारिक बंधनों में, रिश्तों में, रीति रिवाजों में, और बांधना चाहता है मन को भी समस्त बन्धनों में। और तब भी मन उड़ता रहता है , अपने ही द्वारा चुने स्वतंत्र आभासी गगन में, जिसकी आजादी नहीं देता जहान, वह रोकता है मन को। उसके पवित्र प्रेम को पाप बताकर, करवाना चाहता है निर्वहन, निर्जीव रिश्तों का, मन में पलते शुद्ध, शाश्वत प्रेम को मन का मैल बताकर, दवा दिया जाता है,  मन के ही किसी अज्ञात कोने में। तब मासूम निर्मल मन  हो जाता है मस्तिष्क के आधीन, और मनुष्य धोता रहता है ताउम्र  निर्मल मन पर थोपा गया मन का मैल। Wri