"मन का मैल"(कविता)

 मन जब करता है प्रेम किसी से,

अनन्त, अटूट, अपार प्रेम,

तब हो जाता है सब कुछ प्रेममय।

यह धरा, पवन, आकाश, दोनों जहां,

यहां तक कि इस सृष्टि के

 प्रत्येक जीव, लगने लगते हैं प्रेममय।


हर बन्धन से परे,

समस्त रिश्तों से विलग,

कहीं नहीं होता क्रोध ना घृणा किसी से,

लगाता रहता है मन डुबकियां

प्रेम के समंदर में।


कभी विरह की पीर से कराहता मन,

तो कभी प्रीतम के

निकट होने के आभास पर मुस्कुराता,

दुनियादारी की रस्मों को झुठलाता मन,

निभाता रहता है

अपनी ही दुनिया की अनगिनत रस्में।


पर जब तन बंध जाता है

सांसारिक बंधनों में,

रिश्तों में, रीति रिवाजों में,

और बांधना चाहता है मन को भी

समस्त बन्धनों में।


और तब भी मन उड़ता रहता है ,

अपने ही द्वारा चुने स्वतंत्र

आभासी गगन में,

जिसकी आजादी नहीं देता जहान,

वह रोकता है मन को।


उसके पवित्र प्रेम को पाप बताकर,

करवाना चाहता है निर्वहन,

निर्जीव रिश्तों का,

मन में पलते शुद्ध, शाश्वत प्रेम को

मन का मैल बताकर,

दवा दिया जाता है, 

मन के ही किसी अज्ञात कोने में।


तब मासूम निर्मल मन 

हो जाता है मस्तिष्क के आधीन,

और मनुष्य धोता रहता है ताउम्र 

निर्मल मन पर थोपा गया मन का मैल।

Written by रिंकी कमल रघुवंशी"#सुरभि"

Comments

  1. तब मासूम निर्मल मन

    हो जाता है मस्तिष्क के आधीन,

    और मनुष्य धोता रहता है ताउम्र

    निर्मल मन पर थोपा गया मन का मैल।
    Kya bat hai... Superb 👍

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

"जिस्म़"(कविता)

"बेटियाँ"(कविता)

"उसकी मुस्कान" (कविता)

"बुलबुला"(कविता)

"वो रात" (कविता)