"हताशा/उलझन"(कविता)
तुम्हारी पलकें झुकी हुई हैं पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।
है कैसा गम जो तुम्हे सताये पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।।
चिल्लाये होंगे सब मिलके शायद चांद हुआ बहरा-बहरा।
है जुगनू फिर भी आस जगाये पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।।
नेमतें तुम कितनी कमा लो चार दिन की है जिन्दगानी।
है खाली जाना समय बताये पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।।
फूल गुलाबां सजे हैं गुलशन पेड़ बबूलां भी उगते सहरा।
है कैसा मंजर मन में बसाये पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।।
जानता है तू भली तरह से तेरा रहनुमा तुझे लूट लेगा।
है कैसा भय फिर तुझे डराये पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।।
🙏संतोष ही सबसे बड़ा धन है, वही सुख है 🙏
Written by ज्ञानेन्द्र पाण्डेय
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