"मन के तार"(कविता)

छेड़ो मत मन के तारों को 

कोई राग निकल आयेगा ॥ 


सुबह हो गयी शाम हो गयी 

चाहत भी अंजान हो गयी 

सब कुछ अब तो सुख चुका है 

तबियत भी बेईमान हो गयी 

झिलमिल आँखो का आंसू भी 

पानी बन कर निकल आयेगा ॥


सपने तो सपने होते हैं 

सपने कब अपने होते हैं 

बंद है मुट्ठी तबतक मोती 

खुलने पर कितने होते हैं 

पाँव हैं लंबे छोटी चादर 

फटकर पाँव निकल आयेगा ॥


सावन में आती हरियाली 

पतझड़ में सूखी है डाली 

बासंती मधुमास देखकर 

झूमि रही कोयल मतवाली 

आंगन फूट रहा है यौवन , 

बरबस फाग निकल आयेगा ॥


सुख -दुःख आँख मिचौली खेले 

धूप -छांव भी  गठरी खोले 

सच्चा क्या है क्या है झूठा 

दोनो एक तराजू तोले

हानि-लाभ का जीवन -लेखा , 

इक दिन सही निकल आयेगा ॥

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