"मेरी नैना"(लघु कहानी)


हम जब भी मॉल जाते नैना के क़दम सेंडिल के शोरूम पर ठिठक जाते.. हसरत से वह उन्हे निहारती और फिर

झट से आगे बढ़ जाती... वह जानती थी

हम इतनी मंहगी सेंडिल नहीं खरीद सकते।

अक्सर पास के ''मॉल " में रात का खाना खाकर चले जाते थे टहलना हो जाता ... ठंडी ऐ.सी. की हवा खाने मिल जाती और सारा दिन एक कमरे मै बंद नैना का मन भी बहल जाता था.... तरह-तरह के लोग नन्हे मुन्ने बच्चे ,मॉल का मेले सा माहौल में उसकी की खुशी उसकी आंखों की चमक देख मुझे बड़ा आनंद प्राप्त होता, बस कभी मन बड़ा ख़राब हो जाता कि मै उसे सैडिल नहीं ख़रीद पा रहा... उसकी आंखो में चाह देखी थी...

वह कभी कोई फरमाईश न करती...

छुट्टी वाले दिन हम  मॉल के बाहर वाले

बाजार में कभी चाट कभी पाव भाजी और कभी आइसक्रीम खाते ,महीने में एक बार फिल्म भी देखने जाते वह इन छोटी - छोटी बातों से वह खुश हो जाती और ढेरों प्यार करती , बहुत परवाह करती बहुत अच्छी पत्नी साबित हो रही थी वह ।        

 शादी को आठ महीने हो गये थे मां ने ब्याह होते ही कहा था नरेश बहू को साथ ले जा तुझे खाने की दिक्कत है .. सो नैना साथ थी तब से घर का खाना मिलने से मैं भी भर सा गया था, सुन्दर खुश - मिजाज बीबी का साथ ..

एक दिन नैना बोली सुनो जी आप कहो तो मैं साड़ी में फाल लगाने का काम कर लूं आपके जाने के बाद सारा दिन खाली बैठी रहती हूं !

चार पैसे भी आएंगे और मेरा मन भी लग जायेगा ...

हां लेकिन तुझे काम कैसे मिलेगा ?

वो कंचन भाभी करती है ये काम कह 

रही थी की काम बहुत है रोज की दस साड़ी पर वो पांच ही कर पाती है !

ठीक है अगर मन है तो करके देख लो, न बने तो छोड़ देना ।

मन नहीं था वह काम करे पर फिर भी उसकी खुशी के लिये हां कर दी ।

उधर फैक्ट्री में काम से खुश होकर मुझे सुपरवाइजर बना दिया गया था ,तनखा भी बढ़ गई सो बढ़ा हुआ पैसा बैंक में डालने लगा,मन था नैना को सैडिल तो दिलाना ही है इसी तरह तीन चार महीने बीत गये मां का कहना था कुछ दिन को घर आजा सो घर जाने की तैयारी होने लगी मैंने कहा चल मॉल घूम आते हैं ... कल घर जाना है वह झटपट तैयार हो गई 

ले जाकर सीधे सैंडिल के शोरूम पर खड़ा कर दिया जो लेना है सो खरीद ले लो आज मन पंसद की..

नहीं नहीं ये बड़ी कीमती हैं... बहुत कहने पर उसने एक बारह सो की सैंडल खरीद लीं और पहन भी ली ।

चलिये अब घर चलते हैं !

कुछ और नही लेना है ?

नहीं घर चलते हैं ।

मैं मां पिताजी के लिये कुछ लेना चाहता था... पर चुप रह गया ... बुरा भी लगा कि

नैना ने नहीं सोचा कि मां के लिये पिताजी

के लिये कुछ ले चलें ।

घर पहुंचते ही नैना बैग खोलकर कुछ पैकिट निकाली " देखो जी ये कैसे हैं"?

ये मां जी की साड़ी और पिताजी का कुरता पजामा और ये आपके लिये पैन्ट

शर्ट उसके चेहरे पर प्रसन्नता थी....

अरे ये तुम कब लाई ?

और पैसे कहां से आये ?

अरे आप भूल गये  वो साड़ी मै फाल लगाने का काम और ब्लाऊज में तुरपन और बटन लगाने का काम सौ रूपये रोज

मिलते हैं... वह खर्च ही नहीं हुए थे...

कंचन भाभी के साथ आज गई थी लेने ।

खुशी से उसका चेहरा चमक रहा था..

मै मन ही मन शर्मिन्दा था क्या सोच रहा था... वैसी नहीं है ...मेरी नैना

आपको अच्छा नहीं लगा ?

बहुत अच्छा है नैना सब के लिये लाई हो

अपने लिये कुछ नहीं लाई  ?

आप तो हैं न मेरे लिये तो आप लाएंगे ही.. मुझे पता था !

आगे बढ़कर मैने नैना को बाहों में भर लिया... दिल की कितनी अच्छी है... मेरी नैना ।

कोई और होती तो पहले अपनी सैन्डिल

लेकर आती...

Written by अनुपमा सोलंकी

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