"माँ को मूर्खता का पाठ पढ़ता बचपन"(कविता)
जन मूर्ख-दिवस पर रो रहा है मेरा मन
माँ को मूर्खता का पाठ पढ़ता बचपन
लौट रहा है स्मृतियों की गठरी लेकर
हृदय के किसी कोने में विश्राम के लिए
लंगोटिया यारों के संग :
गुल्ली-डंडा होला-पाती बुल्ली-कऽ-बुल्ला
तरह-तरह के खुरपाती खेलों का खुल्लम-खुल्ला
तड़क-भड़क ताजी तरंग :
गाजर-गुजरिया लुका-छिपी डाकू-पुलिस
गोली-सोली टीवी-उवी खो-खो सो-खो किस-
किस को याद करूँ सब में सामिल है
एक ही बहाना :
झूठ
माई मैदान जात हई
(निपटान/टट्टी करने जा रहा हूँ...)
जैसे हम माँ को मूर्ख बनाते थे बचपन में
आज कोई हमें बना रहा है
हम क्या करें
माँ बन जायें
या फिर पिता की तरह उसे समझायें
ना समझे तो कान भी ऐंठें
और घुड़कें-सुड़कें!
Written by गोलेन्द्र पटेल
kya bat hai... superb...
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