"आँख"(कविता)


1

सिर्फ और सिर्फ देखने के लिए नहीं होती है आँख

फिर भी देखो तो ऐसे जैसे देखता है कोई रचनाकार

2

दृष्टि होती है तो उसकी अपनी दुनिया भी होती है

जब भी दिखते हैं तारे दिन में, वह गुनगुनाती है आशा-गीत

3

दोपहरी में रेगिस्तानी राहों पर दौड़ती हैं प्यासी नजरें

पुरवाई पछुआ से पूछती है, ऐसा क्यों?

4

धूल-धक्कड़ के बवंडर में बचानी है आँख

वक्त पर धूपिया चश्मा लेना अच्छा होगा

यही कहेगी हर अनुभव भरी, पकी उम्र

5

आम आँखों की तरह नहीं होती है दिल्ली की आँख

वह बिल्ली की तरह होती है हर आँख का रास्ता काटती

6

अलग-अलग आँखों के लिए अलग-अलग

परिभाषाएँ हैं देखने की क्रिया की

कभी आँखें नीचे होती हैं, कभी ऊपर

कभी सफेद होती हैं तो कभी लाल !

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