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"खुल्लमखुल्ला"(कविता)

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गुजारिशें पा बढा नेवला , साँपों तक तो बला । मेढकों में भी कला , हवा बावली ! दिल ढला । सांसों का क्या मामला , मृगतृष्णा से पता चला !! पानी बेपानी और छला , आग और अंधेरा पला । आंसू  क्या तुम्हें खला , क्या धुआं भी धुंधला ? लाशों पे राजनीति खुल्लमखुल्ला , ज़िदगी स़च़ में बुलबुला । मरघटों में सन्नाटा उछला , कोलाहलें और कहानियां इत्तिला । काली घटा किसे बदला , कालाबाजारी से क्या भला ? छतरी नहीं - जनता अबला , कामधेनु भी है आगबबूला । नियति दलदल क्यूं उगला , क्या काला और उजला ? ताला भी सहसा खुला , कहां पुष्पों तले गमला ? घर भी हमारा - तुम्हारा जला , तसल्ली हेतु  वादा  खोखला । अपनी यादों तक फासला , यहीं वेदना और जुम्ला । कहां महफिलों में तबला , घुंघरुओं से क्या सिलसिला ? चंदा तो रही चंचला , सितारों से क्या गला ? विषकन्या और फिर घपला , चूल्हेंबंदी तक का मसला । Written by विजय शंकर प्रसाद

"चीखें"(कविता)

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निशा में जुगनू गुजरा , क्या किया है हासिल ? इश्क़ में अम्बर ठहरा , चंदा की भी महफिल । धरा  ख्वाहिशें और  पहरा , मृगतृष्णा में है दिल । हसीना ,बूरका और घड़ा , नदी -समंदर से सटा साहिल । पानी -पानी -चीखें और सिरफिरा - क्या ठुका गया कील ? प्यासी मछलियां देखते डरा , किंतु मांझी था कुटिल । बगुला कहाँ था अंधा - बहरा , पहुंचा था अपने मंजिल ! जहरीली हवा में मरा , जो बना  था काबिल । मौतों का फैला ककहरा , फिर छाया भी तब्दील । गर्दिशें कोलाहलें ,निःशब्दता कतरा , नयना भी न झील । सावधानी भी बरतें जरा , हरियाली है अब बोझिल । बेपानी कुत्तों को लहरा , मकड़जालों में  सांपें कातिल !! छिपकली , बिल्ली और उस्तरा - चूहें की राहें मुश्किल । कानूनविदों को पता नखरा , मेढकें तौलना भी जटिल । गुलाब़ तो न इतरा , नियति न तो फाजिल़ । Written by विजय शंकर प्रसाद

"आलोचना"(कविता)

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क्या कहूँ मैं अपना ,क्या कहूँ प्रियतमा पराया ? रातों में देखा सपना -झिलमिलाते सितारों की छाया । पानी की क्या गणना ,क्या न है बौराया ? चंदा की अधूरी तमन्ना ,क्या महफिल में सताया ? नदी , मछली और ओलहना ,बेपानी दुनिया की माया । अम्बर लहू से सना ,ये कैसी है काया ? तुलसी लहरें झेला अंगना ,बंदिशों में क्या लहराया ? कहीं आलोचना और समालोचना ,क्या-क्या हमें-तुम्हें भी समझाया ? जुगनू का क्या सोना ,जगने पे क्या भाया ? राजा न्यायी तो जगना ,जनता चाहती है छत्रछाया । बातों से न छलना ,हमनें कहाँ दोषी ठहराया ? राजनीति क्यूँ  करें नयना ,सोचों ! क्या है पाया ? करें स़च़ का सामना ,अंधेरा है क्यूं गहराया ? माली का क्या आईना ,सिफारिशें क्या है आया ? फूलों को था खिलना ,भौरों को क्या भरमाया ? आंसुओं से क्या सींचना ,आग कहाँ -कहाँ लगाया ? लम्हों का जारी गुजरना ,जिंदगी का क्या किराया ? हवा की बदनामी जितना ,उतना तो न बहकाया । चेतावनी पहले  भी सरकना ,फिर आदमी क्यूं छटपटाया ? लाशों का जमघटें पनपना ,तौब़ा किससे किसमें समाया ? तमाचा तमाशा पे जड़ना , परिंदा - बहेलिया तक क्या जायां ? सूरज हो जा चौकन्ना , अर्जी कवि हैं बढ

"बगुला"(कविता)

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कहनेवाले के हवाले ख्वाहिशें ,सुननेवाले पे क्यूं आगबबूला ? टूटे-फूटे हैं क्यूं शीशें ,बंधन क्यूं पड़ा ढीला ? नदी और मछलियां सिफारिशें ,उपभोगी है बना बगुला । वेदनाओं की शुरू बारिशें ,जिंदगी तो है बुलबुला । मौतों का भय तपिशें ,दरबाजा था अब खुला । सन्नाटे के सभी हिस्से ,धरा पे है जलजला । संचिका में भी टीसें ,राही आखिर कहां चला ? प्रियतमा हो किसके भरोसे ,मुंहतक्की और मुंहजोरी बला ? पर्दे के पीछे साजिशें ,महफिल में न तबला । चाटुकारिता की क्यूं दबिशें ,इश्क का कहां सिलसिला ? अरमानों पे भी बंदिशें ,नहले पे क्या दहला ? महलों से झोपड़ी पीसें ,रेता है क्यूं गला ? भूखी -प्यासी तितलियां –बेआबरू परवरिशें ,कांटा मनचली और  मनचला । मदिरा तो निचोड़ा नुमाइशें ,हमें तो न बहला - फुसला । कहूं क्या आखिरी किस्सें ,दिल क्यूं है बावला ? माया  और छाया फरमाइशें काया का कैसे भला ? प्रकृति की कैसी आशीषें ,काला क्यूं लगा उजला ? घुंघटों तले रंगें किसे ,झूठी मुस्कानें क्या सबला ?  घुंघरुओं की क्या फीसे ,चंदा सितारें होते अबला ! पत्थरें क्या हैं घिसें , सब्जबागें दिखाना भी कला !! तौब़ा, हताशा और हादशें , पहाड़ियां तक जहर क

"बुलबुला"(कविता)

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महफिल तो बहला है , नग्नता भी उछला है । मौतों का फैसला है , जिंदगी तो बला है । चेहरे दिखाना कला है , फंसाया गया मामला है । लम्हें देते इत्तला हैं , फिर क्यूँ छला है ? हिंदुस्तानी क्यूं जला है , वादाखिलाफी क्या भला है ? सौदा में घपला है , सियासी रंगें जुमला है । महामारी न टला है , जनता तो चंचला है । प्राणवायु पे मसला है , दवा-दारू कहां पला है ? थोपाथोपी कहां ढला है , चुनावी सभा ! हल्ला है !! यहां महारथी उगला है - कारनामा न पहला है । ज्ञानी क्या दुबला - पतला है , आखिरी कहां मुकाबला है ? सुना तो बगुला है , मछली संग बुलबुला है । न पहाड़ी पिघला है , घर-घर हीं अधजला है । न तो तबला है , दिल क्यूं  पगला है ? तौब़ा हेतु अगला है , न्यायी को खला है । कहीं बना किला है , दिमागें कैसा ढीला है ? सही सम्भवतः कबीला है , सिंधु - नदियां गर्विला है । राही कहां चला है , सूरज क्या नुकीला है ? इश्क सम्भावना तला है , आखिरी हस्ती महिला है  । शीशा न पीला है , क्या -क्या न हिला है ? सर्पें और नेवला हैं , लहर क्या-क्या निगला है ? प्रियतमा को जो  कुचला है , बूतों की  ऊंची श्रृंखला हैं । क्या -क्या विषकन्या सम्भला है

"जिस्म़"(कविता)

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प्रियतमा तो जिंदा है , रागिनी हीं शर्मिंदा है । महफिलों में अदा है , प्यासा दिल सदा है । आईना क्यूं जुदा है , कहाँ पे खुदा है ? जिस्म़ रिसता परिंदा है , ये मदिरा चुनिंदा हैं । औपचारिकता में निंदा है , टुकड़े में स़च़  पुलिंदा है । खवाहिशों पे फंदा है , भौरा क्यूं गंदा है ? धंधा न मंदा है , निचोड़ी गयीं चंदा है । परछाइयों तक जुदा है , देखा अंधेरा उम्दा है ? मछलियां प्यासी फिदा है , क्या नदी-समंदर संजीदा है ? फरेबी यहां लदा है , साहिल क्या अलहदा है ? मौतों पे पर्दा है , मर्दानगी क्यूं बेपर्दा है ? सहने को वसुधा है , आखिर कहां सुधा है ? सियासी इश्क बदा है , सौदागरी में नुमाईंदा है । आग आखिरी बंदा है , ठगी हेतु करिंदा है । विषकन्या  देती गुदगुदी है , सुधि  हेतु बेसुधी है । नयी नारी -कसीदा है , जुगनुओं  ! फैला दरिंदा है । जहरीला लम्हा आमदा है , कश्तियां अब अलविदा है । रातें न यदा-कदा है , दिनें भी बेकायदा है । दीवारें न गुमशुदा है , झूठी मुस्कानें वसींदा है । कहने को कायदा है , नजारा भी भद्दा है । Written by विजय शंकर प्रसाद

"कुर्सी"(कविता)

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 बंदिशें और खुलापना विलोमी , नाराजगी भी ढो लिया । अदा नेकी का है , जुम्ला से तौब़ा है । लाशें भी कमी क्या - क्या -क्या दुखी हैं ? सत्ता बोलना चाहती है , विपक्षी भी जिंदा है । बूतें भी संजीदा हैं , इमारतें भी उपमा हैं । अस्पतालों की जरूरतें हैं , प्राणवायु भी तो मजबूरी । रामभरोसे है अभी जनता , कर्फ्यू फिर हों कयूं ? चुनावी मौसमी हया कहूँ , अच्छी बातें अनकही है ! नतीजों पे आंखें हैं , पता तो है हीं । नाकामी पे जंगी हाजिर , जल्वा मरघटों पे सुहागा । विषकन्या से पाला पड़ा , हवा है यूं वफ़ा । स़च़ कहने पे दफ़ा , इतना ज्यादा कर्णधारें ख़फा ! बीमारी का लम्हा है , खुली किताब़ तो बनें । कभी मुँहें न फेरे , क्या तेरे या मेरे ? लम्बी-चौड़ी सौदेबाजी इश्क नहीं , उजाला कृत्रिमतानुमा अंधेरा है । रातें जगी सी है , दिनचर्या भी बेताब़ है । ये नायाब़ नकाब़ है , गुलाब़ तो बेनकाब़ है । कुर्सी मरा है नहीं , बहुरूपिये तो नवाब़ हैं । जहरें पी लिया है , दग़ा क्यूं दिया है ? आदतें यूं बला हैं , बेपानी का बदला है । रावणों की दुनिया है , देवों का ढिंढोरा है । बेकाबू तो अर्जियां हैं , मनाही और खुदगर्जियाँ हैं । कहीं पे अ

"मैं"(कविता)

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प्रियतमा यदि गुलाब़ है , मैं खुली किताब़ हूँ । कहीं इश्क रूआब़ है , कहीं मैं ख्वाब़ हूँ । नदी को जवाब़ है , मैं मछलियां बेहिसाब़ हूँ । समंदर तक हिसाब़ है , मैं कहाँ लाजवाब़ हूँ ? अम्बर तक आफताब़ है , मैं तो इंकलाब़ हूँ । कहीं गिरे शराब़ हैं , मैं क्यूँ सैलाब हूँ ? कहीं गवयीं तालाब़ है , मैं सितारा जनाब़ हूँ । महफिल में शबाब़ हैं , मैं न कवाब़ हूँ । कहीं पाषाणी खिताब़ है , मैं कहाँ नवाब़ हूँ ? कहीं निःशब्दता नायाब़ है , मैं आखिरी दवाब़ हूँ । मिथ्या पे नकाब़ है , मैं स़च़ बेनकाब़ हूँ । न रातें नाकामयाब़ है , मैं अश्कें कामयाब़ हूँ । हालातें भी खराब़ हैं , मैं मृगतृष्णा बेताब़ हूँ । कहाँ खुशियाँ महताब़ है , मैं गुजारिशें ताब़ हूँ ! कहाँ मंजिलें सवाब़ है , मैं लघु हिसाब़- किताब़ हूँ !! Written by विजय शंकर प्रसाद

"स्मृतियां"(कविता)

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 कैसी है ख्वाहिशें जिंदगी की , दीये जलें और पतिंगें मंडरायें ! अंधेरी रातें नहीं ठगी की , सितारें छलें और चंदा सकपकायें । परछाइयों की गुजारिशें बानगी की , लम्हा -लम्हा ढलें और स्मृतियां छलकायें । कभी तो सिफारिशें सादगी की , जवानी पिघलें और इश्क जगायें । गति है नजारा संजीदगी की , हवा तले और क्या फरमाये ? बादलें और बारिशें मौजूदगी की - कहीं महलें और कुटिया, गायें । पीड़ा और टीसें गंदगी की , कैसे चलें और कहां जायें ? बातें नंगी और कहीं बेपर्दगी की , क्या भले और क्या अदायें ? शोरें और कंपकंपी  उगीं की , तंहा दिल क्या -क्या आखिर कमायें ? निःशब्दता अधखुली परवरिशें बेढंगी की , किसके गलें और कितना सतायें ? Written by विजय शंकर प्रसाद

"सच़"(कविता)

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सूरज में तपिशें कहानी , यही तो नियति है । अम्बर सहता नहीं कुर्बानी , धरा तक सहमति है । चंदा की अधूरी वाणी , वफादारी किसके प्रति है ? सितारों में कैसा दानी , कहां , क्या परिणति है ? बादलों तक नहीं अज्ञानी , मसला तो कुदरती है । जहां होती खबरें जानी- पहचानी , बातें नहीं खटकती हैं । अबोधता में प्राणी हैं, हिरणी भी भटकती है । नदी में  मछली रानी  , परछाइयां कहां अटकती है ? पानी जहां पे बेपानी , हवा से ठनती है । निःशब्दता तक है आनाकानी , प्रियतमा !  सच़ बकती है । दुनिया न है बेगानी , न लाशें महकती हैं । नागिनें न तो अनजानी , सियासी जिंदगी रटी -रटायी गति है ? क्या बचपना है जवानी , क्या बुढापा शरारती है ? मीरा किसकी है दीवानी , कलयुगी क्या मति है ? मदिरा यूं है पुरानी , चाटूकारिता में आरती है । साहिलों तक निशानें रूहानी , गुजरे नाना दम्पत्ति हैं । खोटा सिक्का की मेहरबानी , परीक्षा क्या सती है ? छीना -झपटी में  न  स्वाभिमानी , सौदागर करता ज्यादती है । नेता न अब हिंदुस्तानी , कुर्सी हेतु आदि -अनादि राजनीति है । जनता वेदना की निशानी , कश्तियां भी बनावटी हैं । देशद्रोही कहना भी आसानी , भूखी चिड़ियाँ

"अनुभूति"(कविता)

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विषों के ढेरों पे हमारी प्रकृति , टेढे - मेढे न माना अपनी ही आकृति । पगडंडियों पे सांसें दी अनुभूति , अनभिज्ञता है कहाँ  आईना अस्वीकृति ? परछाइयों के पीछे भी गति , ठहरा दिया हमें अपनी मति । तभी तो दावों की  स्वीकृति , क्या सफरनामा कहीं तापमापी जागृति ? भागदौड़ों में चंदा की रीति , सितारों पे सुहागा उसकी नीति । बादलों से यदाकदा क्या -क्या अति , जंगें आजादी पे अलबत्ता संस्कृति ! लम्हा - लम्हा नदी पे  अभिव्यक्ति कीर्ति , समंदरों तक लहरें की आपूर्ति । मछलियों तक ख्वाहिशें भी प्रस्तुति , साहिलों तक नृत्यांगना सी  रति । पहाड़ियों से और जंगलातें भीत्ती , प्यासी दास्तां और अशेषें मुक्ति । आग और इश्क की है दोस्ती , दुश्मनी पैदा की नियति क्या वस्ती - वस्ती ? मंजिलों तक निशानी बता क्षति - अश्कों की कहां तक स्मृति ? सन्नाटों से कोलाहलें तक आपबीती , रक्तों की लाली कहां अनुपस्थिति ? मां कहने तक बचपना उपस्थिति , न वासना यहां पे रिक्ति । यौवना भी त्रासदी क्या रटी , अंधेरे में मुग्धता क्या प्रति ? उलटफेरों की कहां नहीं सृष्टि , आदमियों की कहां वहां दृष्टि ? वेदनाओं से क्या कामिनी  नाचती , पर्दाफाशें नहीं

"आहें"(कविता)

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गुलाबों तक कांटों की छाहें , जवाबें रातों तक क्या गुजारिशें ? नकारा नहीं कभी भी चाहें , बिखरी जवानियों से पहले बारिशें । फैसला टिमटिमाया और फैली बांहें , इश्क की घड़ियां में ख्वाहिशें । राहें और कदमें देखें चौराहे , फिर प्रियतमा  किसके क्या - क्या हिस्से ? सांसें सांपें  सपेरों तक गवाहें , गर्दिशें तक हमारे क्या -क्या घिसे ? यूं कहने को  है तनख्वाहें , दीनों पे अंधेरा की तपिशें । किसे है अब हमारी परवाहें , नियति क्यूं जुल्में और टीसें ? कहाँ तक अम्बर करेगा  गुमराहें , आग और पानी करें परवरिशें ! आईना तक शोरें और अफवाहें , मरी मछलियां और कितने किस्सें ? प्यासी नदियाँ तक रानी आहें , जहरीली हवा और  टूटे शीशें । जिज्ञासा से हताशा तक पनाहगाहें , सागरों में खारापनों की दबिशें । पहाड़ों पे कामरतिया तक कब्रगाहें , जंगली सुहागरातों की क्यूँ नुमाइशें ? परछाइयों की किससे पुष्टि निकाहें , कटौती किला और कोकिला फीसें !! चंदा-सितारों तक क्या - क्या अथाहें , बादलों की अदायगी क्या बीसें ? हरी घासों पे माटी  शहंशाहें , जर्रा - जर्रा तक क्या-क्या चालें  साजिशें ? उधारी - नगदी में क्या परोसा विवाहें , मंजिलो

"त़ौबा"(कविता)

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कभी शोरें महफिल की , कभी बातें दिल की । कभी हवा साहिल की , क्या रंगें कातिल की ? क्या आशिकी मंजिल की , क्या नजरें कुटिल की ? बेवफाईयां तब्दील जाहिल की , आईना तक परछाइयां खनकी । क्यों है राही टकटकी - इश्क की यहीं एकांकी ! खवाहिशों की बारिशें  सनकी , आग की कश्तियाँ बहकी । फिर रहा क्या बाकी , क्या -क्या बेआबरू है शाकी ? त़ौबा का कहाँ - कहाँ तैराकी , बंदिशों में क्या झांकी ? अंधेरी रातें और टोकाटाकी , यादों की तकदीरें बेबाक़ी । आवेगी धारा हिचकियाँ  ख़ुराकी , खादी संग वर्दीधारी खाकी । गवाहों पे क्यूं घुड़की , चंदा क्यूं है थकी ? कलियां क्यूं न भड़की , अदाकारा यहाँ भी महकी !! प्रियतमा की खुली खिड़की , ओढनी भी तो सरकी । अफवाहों की आपाधापी बारीकी , कहानी में संजीदा लड़की । माया की देखा धमकी , मुस्कानें यूं न फीकी । श्रृंगारें न तेरी पक्की , मकड़ी की कहां चक्की ? पगडण्डी की कुंठा चूंकि , कैसे हो मुक्ति जानकी ? कलयुगी गलियां  क्या आंकी , बिचौलियों की कहाँ पालकी ? धर्मयुगी दुनिया तले जानकी , कहाँ तक है सकी ? शहंंशाही घड़ी क्या फिरकी , दशा क्यों है नापाक़ी ? परिस्थितियों  का पुतला नर्तकी  , पानी-पानी हो क्

"लहर"(कविता)

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मैं क्या कहूँ राजा , तू क्या आया है ? बजे हैं क्यूं बाजा , क्या - क्या ख्वाहिशें बहकाया है ? शोरें भगोड़े तो जा , बहाना क्यूँ बनाया है ? अंधी भक्ति  दिया सजा , बहरा करवाया सफाया है । सियासी खेलें यदि मजा , नशा कितना समाया है ? झूठी हमदर्दी की रजा - जिंदा मेढकें तौलाया है । जरा तो अब लजा , क्यूँ स़च़ दहलाया है ? वादी -फरियादी से क्या इल्तिजा , मीठा जहर तड़पाया है !! जहाँ खूनी हो पंजा , घड़ियाली आंसू बहाया है । वित्तवासना से क्या गंजा , होली कैसे मनाया है ? विद्रोही नहीं लेना जायजा , अंधेरा क्यूँ बढाया है ? अखबारों में क्या-क्या ताजा , कलंकी लहर सिहराया है !!! कितना बदला है लहजा , क्यूँ बुझा दीया  है ? क्या रहने दिया पाकीज़ा , क्यूँ इतना बौराया है ? नहीं चाहता था मुआवजा , सही तो कुत्ता -कुत्तिया है । कमी पे किसका कब्जा , जनता नहीं वेश्या है !!!! निःशब्दें रोटियों पे मुलाहिज़ा , शिकारी कांटा  चुभाया है ? आया तो गया ख़िजां , अश्कों पे खिलखिलाया है । Written by विजय शंकर प्रसाद

"स़च़"(कविता)

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तिथि बताया न अधूरा हीं , कैसे कहूँ -क्या है सही ? तुफानों से जुड़ा यहीं , उपमा फिर भी अनकही । खतरों तक साफसुथरा नहीं , चुपड़ी बातें न कभी सतही । ख्वाहिशें ऊंची और  कुड़ा कहीं , स़च़ अकेले तो कहाँ गवाही ? कलियों से भौरा पूरा राही , छलिया दिल से है तबाही । नदी में गिरा अस्तूरा बतकही , तटस्थता का भागी न माही । घृणा कैसे  छुरा बेगुनाही शाही , काग़ज़ों पे पसरी काली स्याही ! पानी बिना बेआबरू क्या सुराही , साजिशों की कैसे वहाँ मनाही ? तितलियां बागी और हैं कराही , मंहगाईयां बढी तो अलबत्ता त्राहि-त्राहि । Written by विजय शंकर प्रसाद

"ख़ुमारी"(कविता)

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तस्वींरें जिंदगी की  किसानी पे , दिलों में शब्दों का सफर । कागजी  कृपा अलबत्ता कहानी पे , कभी बाढें गुजारिशें भी तेवर । इश्क बचपना नहीं जवानी पे , कभी बारिशें या अकालें अम्बर । धरा पे खुमारी प्राणी पे , जहाँ पी रहे हैं जहर । सूरज की किरणें बेजुबानी पे , हमें पता नहीं असली घर । आहिस्ता -आहिस्ता  चिंहितों तक दीवानी पे , लम्हा -लम्हा कैसे बेपरवाही धरोहर ? किंतु -परंतु तक क्या निशानी पे , परछाइयों तक क्या -क्या बेघर ? सवालों के आगे-पीछे दानी पे , विरानगी  फूलों तक है भ्रमर । शूलों से बातें हानि पे , रातों में अंधेरा का कसर । कलयुगी सीता की बदजुबानी पे , चंदा -सितारों का कहाँ समंदर ? बिजलियाँ क्या गिरी मनमानी पे , साहिलों पे ठहरा कभी लहर ! हकदारी परोसा गया कुर्बानी पे , पहाड़ी तक यादगारी जर्रा-जर्रा बेहतर । नदियों की खुद्दारी पानी पे , रानी की मनचली कश्तियाँ डर । अश्कें और वेदनाओं तक शैतानी पे , निःशब्दता भी जंगलों जैसे यायावर । सोचा न छिद्रान्वेषी  के वाणी पे , आखिरी आग तक  धुआं कबूतर । बादलों की जिद्दी छेड़खानी पे , खोटा सिक्का ,कीचड़ें और  टक्कर । अंगराईयां यूं नहीं नादानी पे , तोता ,काली म

"तराजू"(कविता)

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जिस्मानी हया और रूठी  राहें , रातें तो फैला दी बाहें । अंधेरा नहीं होता कभी गाहेबगाहे , फिर भी जिंदा हीं चाहें । फरियादी क्या कभी गवाहें , अमरता की क्या है तन्ख्वाहें ? यादों की तराजू तक आहें , बाजारू नहीं  माना था शहंशाहें । जनता की  खरीदारी की गुनाहें , क्या समंदर में डूबे बेगुनाहें ? दिलों तक गायें और चारागाहें , गुलाबों की ख्वाहिशों में माहें । कांटों से यारी पे निगाहें , भीतरखानें का दिया क्या थाहें ? चुराया गया न हमेशा ख्वाबगाहें , चंदा से सूरज तक  क्या बेपरवाहें ? जुगनू ,चिड़यां और किसकी परवाहें , हरी घासों पे कीचड़ें छांहें ! तौबा -तौबा करते बढे गुमराहें , आग लगने से मिटा लाहें । शिकारी को क्यूं हमसे दाहें , क्या युक्तियां  बचाने की सलाहें ? विपत्ति को अब भी ढाहें , यूं मौतों के हैं बहानें ! भेड़ियों को ले चले चरवाहें , मिला मंदिर -मस्जिदों तक  कोताही उत्साहें !! मिट्टी का जला  दीया कब्रगाहें , हवा के हिलोरा से न अफवाहें !!! Written by विजय शंकर प्रसाद

"पुनरावृति"(कविता)

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  ठहरा हुआ  सफर है , क्यूं है आदमी  जंगी ? ये कैसा जहर है , तस्वीरें क्यूं थीं नंगी ? कैसे - कैसे जमा कबूतर हैं , क्यूँ है आखिर तंगी ? अंधेरी दुनिया कसर है , फंसे हैं क्यूं भुजंगी ? कागजों पे तेवर है , महफिल क्यूं हैं बहुरंगी ? डूबाता क्या समंदर है , अतीतें पुनरावृति पाते  फिरंगी ! मौनता तक घर है , इश्क क्या है बदरंगी ? ये कैसा लहर है , नकाबों में क्यूं सतसंगी ? जिंदगी को डर है , कहां जमीरें हैं संगी ? छलिया नजरिया भ्रमर है , परछाइयां भी अलबत्ता उमंंगी । गोपियाँ अक्षरशः यायावर हैं , कलयुगी पीड़ा क्या नारंगी ? नयन  बरसातें  अम्बर हैं , न कहें - नदियाँ बेढंगी !! मछलियां तक स्तर है , रानी सदाबहार और ढंगी । पेड़ों पे बंदर हैं , कलियां तक क्या -क्या मंहगी ? अभिसारिका चंदा  प्रश्नोंत्तर है , रूपैया से क्या - क्या गूंगी ? Written by विजय शंकर प्रसाद

"मनमोहिनी"(कविता)

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रंगों के खजाने से चोरी , पर्दे यहां रचा  है कबूतर । विजेता होने हेतु हैं मुंहजोरी , बढा नजारा और हावी सफर । कहीं काली और कहीं गोरी , चला पत्थरों  तक भावी  लहर । कृष्णा संग राधा की डोरी , यमुना तीरे है इश्क समंदर । मनमोहिनी  जर्रा -जर्रा  तक की थ्योरी , अंगों के तेवरो में न जहर । राहें गंतव्यों तक अभिसारिका मोड़ी , मस्ती में झील और घर -घर  । नयनों से सुधा को निचोड़ी , नीचे धरा पे लायी अम्बर । बातें रसीली की मछलियां थोड़ी , पहाड़ों तक हो गुदगुदाये तेवर । अब न ख्वाबगाहें हैं लोरी , लम्हें फागुनी और कहाँ पतझड़ ? खुशबू और खुशियां न कोरी , वीरों की मर्दानगी पे भ्रमर । Written by विजय शंकर प्रसाद

"होली"(कविता)

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संविधानों और सभ्यता तक रंगमंचें बेदखली , होली -होली रटते - रटते मुरझायी और खिली कली । पिचकारी से यादों में आती खलबली , राधा खुशियाँ हमारे संग मनाने चली । कहीं अटकलें सनसनी में है बली , महलों में हवा से ख्वाहिशें बावली । उलझी जिंदगी में भी खुशियां पली , कहीं तस्वींरें असली या है नकली । कहा नहीं कि दिल न मनचली , शुरू किया आगे बजाना अब डफली । गीतों और भावों में  नहीं छली , आग में होलिका  की भी बलि । हकीकतों से जलजला और  मछलियां उतावली , शमां गलना भिक्षुओं हेतु जाहिर जंगली । वेदनाओं से जमीरें द्वंद्वों में  नुकीली , हारे राही तो विजेता की गली । अंधेरा छा गया तो रातें खली , चंदा सितारों से की है चुंगली । सूरज तले शब्दोत्सवों में चिड़ियां भली , इश्क की नदी में तैरा मुरली । मृगतृष्णा की भी यहीं प्रतियाँ जली , सरसरी नजरों में गुलामी हीं ओखली । अन्नदाताओं में दिनदहाड़े कैदी थी सुरीली , लौटाओं जर्रा -जर्रा लम्हा - लम्हा रंग-बिरंगी हितकारी तब्दीली । Written by विजय शंकर प्रसाद