"खरपतवार"(कविता)

गली के नुक्कड़ से लेकर

हुक्मरान के ताज तक

दूर दूर तक

जहां तक मेरी नज़र जाती है

चारों दिशाओं में खरपतवार 

दीमक की तरह 

मुल्क को चाट रही है

अंदर ही अंदर 

देश को खोखला कर रही है


मैं बहुत प्रयास करता हूं

इस धधकते ज्वालामुखी को

 शांत करने के लिए।

जिस दिन यह ज्वालामुखी फूटेगा

मैं स्वयं बुद्ध की राह पर चल पड़ूंगा

मेरी दिशा मोक्ष प्राप्ति कि नहीं

खरपतवार को जड़ से 

उखाड़ फेंकने की होगी।


मैं निरंतर प्रयास करता रहूंगा

जब तक यह मुल्क 

अपने पुराने आवरण में

 नहीं आ जाता

जब तक यह मुल्क

सोने की चिड़िया 

नहीं बन जाता 

मैं खरपतवार जड़ से 

उखाड़ता रहूंगा

अपनी अंतिम सांस तक

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