"ज़ख़्म"(कविता)

मुझे इल्म नहीं 

उनके ज़ख्मों का 

जो घायल होते रहें 

मेरी तिमारदारी में 

मरहम लगाते लगाते 

मेरे ज़ख्मों पर 

खुद ही ज़ख्म बन गए 

बेखबर रहें हम अब तलक 

ज़ख़्म उनका नासुर बन गया 

इंतजार रहा होगा उन्हें 

मेरे ठीक होने का 

और अब वो खुद बीमार हो गए 

इल्म नहीं था उनके जख्मों का 

वरना ...............................

हम अपनी जान ही ले लेते 

मगर उन्हें दर्द नहीं देते ।

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