"आसरा"(कविता)
क्या ढूंढता फिरता
बाह्य जगत में बोल रे
पागल- बावरा,
है ,अन्तस्- निहित
ढूंढ के देख तेरा खुद
का आसरा !!
जगत है एक आंगन
आंगन भरी है थाली से
चैन-ओ अमन की
चाह लिए क्यों
शोकमय तू कंगाली से !!
शिथिल तन में ला स्फुर्ती
रिक्तता की होगी पूर्ति !!
हौसला का परवाज
लगा ले
मत छोड़ कल पर
आज लगा ले !!
प्रथम उड़ान शिखर पर
द्वितीय आसमान पर
तृतीय उड़ान चांद पकड़
रख खुद की अरमान पर !!
प्रत्येक ख्वाइश को
रौशन कर ले
सुखमय खुद की
जीवन कर ले !!
दूसरों के आसरे पर
कब तक बांधे हाथ रहेगा
दुःख, विसाद, पीड़ा गम
कब तक यूँ हालात सहेगा!!
यहाँ कौन किसी का
हाथ थामता
यहाँ हर रिश्ता हैं
सिर्फ नाम का
यहां कोई नहीं तेरे
अपने काम का
तू लौट पथिक बन
भुला शाम का!!
उदित शशि बन के
निकल जा
धूप कड़कती उष्ण
में ढ़ल जा
सागर के उफान पर
चढ़ जा
एक इतिहास तूफान पर
गढ़ जा !!
स्वप्न अधूरे कर ले पूरे
जीवन खुशमय कर ले
बेसुरे नैराश्य गीतों में
आस के सुर-लय भर ले!!
वीना उपाध्याय
मुज़फ्फरपुर बिहार
बेहतरीन रचना ।
ReplyDeletesuperb....
ReplyDelete