"शब्द"(कविता)
पीछा करते हैं परछाईं की तरह
अक्सर, गहन अँधेरों में
टिमटिमाते हैं जुगनू बनकर
बादलों की गड़गड़ाहट के बीच
बिजली की तरह कौंध जाते हैं
बना देते हैं एक पुल, दिल और दिमाग़ के मध्य
वह पुल, जो आश्वस्त करता है मुझें
कि,
''हाँ ! एक दिन पहुँच ही जाओगी तुम अपनी मंजिल तक''
इसलिये,
मैं शब्दों को मात्र सुनना भर नहीं चाहती
अपितु पी जाना चाहती हूँ उन्हें रोम-रोम से
शब्द मात्र शब्द नहीं होतें
उनमें समाई होती है वक्ता की ऊर्जा, उसकी समस्त जिंदगी का सार
वह सार, जो एक कतरे में पूरा समंदर पिला दे
हाँ देव ! मुझें अब पूरा समंदर चाहिए....
Written by सुमन जैन 'सत्यगीता'
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteवाह बहुत खूब
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