"न्यायालय"(हास्य कविता)
एक दिन मैं भी पहुंच गया न्यायालय के दरवाजे
कान लगाकर मैं जो सुना तो आ रही थी आवाजें
न्याय की तराजू का इक पलड़ा जोर जोर चिल्लाता
जज साहब का स्टेनो उस पर किलोवाट है लगाता
जज साहब जब तक कमरे में घड़ी और सेंट लगाते
तब तक उनके स्टेनो खुद ही जजमेंट सुनाते
जज साहब जब पहुंचे तो फिर सन्नाटा सा छाया
ऐसा लगता फिर जैसे शोले में गब्बर आया
कोई कुछ भी बोले इससे पहले वे चिल्लाए
फिर गब्बर साहब ने पूंछा कितने आदमी आए
एक वकील बाबू तब बोले साहब पूरे तीस
बोले बेटा बाद में गिनना पहले ले लो फीस
न्यायालय में एक आवाजें साहब मुझको न्याय मिले
साहब बोले न्याय मिलेगा पहले मुझको चाय मिले
इससे पहले मैं कुछ बोलूं वे ही मुझसे बोले
बैठ के देखो बेटा क्यूंकि फिल्म लगी है शोले
कुछ रुपया मैने जो निकाला न्यायालय के अंदर
घेर लिए वे सब मुझे जैसे चित्रकूट के बंदर
ऐसा लगता जैसे गुच्छे से टूटा अंगूर
देशी नही थे भैया वे तो सच में थे लंगूर
लगे वे अपना परिचय बताने मैने खोया आपा
बोले ये हैं जामवंत के दादा मैं हूं इनका पापा
एक से बढ़कर एक बताते खुद को वे हनुमान
स्वार्थसिद्धि के चक्कर में वे भूल गए सम्मान
संविधान के रखवालों ने गजब विधान बनाया
कीमत मिल जाए तो फिर कुर्सी का मोल लगाया
न्यायालय की दीवारों में पड़ने लगी दरारें
पैसे वाले बच जाते हैं गरीब हैं जा रहे मारे
न्याय की तराजू को वे अब शूली पर हैं लटका देते
खूब पैसा ऐंठा करते अगली तारीख बता देते
superb... nice...
ReplyDeleteThank u so much
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