"न जाने कैसे"(कविता)
'खुल्ले नही हैं यार,
चलो आगे जाओ।'
भिखारी ने हाथ फैलाए तो
झल्लाकर झूठ बोल दिया मैंने
और हंस पड़े जेब मे रखे
एक-दो -पाँच रुपये के
चंद सिक्के।
दिनभर में कितने झूठ बोलते हैं हम?
हम और आप?
खुद को सही ,भला साबित करने के लिए
चेहरे पर हमेशा
भोलापन ओढ़ने के लिए
रोज़ यह पाप करते हैं।
इस गफलत में कि
कोई नही जानता'फिजियानॉमी'।
बचपन मे बोलते -सुनते थे
'झूठ बोलना पाप है'
अब न झूठ बोलने से डरते हैं
न पाप करने से।
'डरों' की ,लगातार बढ़ती संख्या
के दौर में
ये दो डर
न जाने कैसे हो गए कम?
Written by संतोष सुपेकर
superb... nice...
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