"मानवता"(लघुकथा)

मानवता

लाकडाउन का समय था। टूटी फूटी झोपड़ी में एक बूढी माँ गर्मी से बेहाल होकर ऊंघ रही थी। 

तभी उसके कानो मे किसी के रोने की आवाज पडी। तब वो झोपड़ी से निकल कर बाहर आई 

और देखा कि एक छोटी सी बच्ची चिलचिलाती धूप मे नंगे पैर पैदल चली जा रही थी। उसने कई दिनो से खाना नहीं खाया था। उसके साथ मे चलने वाले और कई बच्चे और उनके माता पिता भी थे। उनसे पूछने पर पता चला कि इसके माँ की सड़क हादसे में मौत हो गई थी। उसने भी कई  दिनो से खाया नही था। यह सुनकर बूढ़ी माँ का दिल पसीज आया और वे दौड़कर झोपड़ी के अन्दर गई और वहाँ से खाने के लिए कुछ लायी सबको पानी और खाना खिलाया। 

लाकडाउन के चलते वह बूढी माँ भी कई दिनो से बाहर नही निकल पाई थी। जिससे लोगो से कुछ माँगकर लाती और फिर पकाकर खाती। वह सोचने लगी की मै क्या करू उसने अपने पास रखे कुछ पैसे और लोगो द्वारा दिए गये जूते-चप्पल उन बच्चो को पहना दिया और अपने पास जमा किए कुछ पैसे जो उसने लोगो से मांगकर अपनी बिटिया की शादी के लिए इकट्ठा किए थे।उन सब मे थोड़े-थोड़े बांट दिये जो भी उसके पास बचा अब रोज कुछ पकाती है। और वहाँ से गुजरने वालों को खिला देती है।मानवता की गठरी अपने कन्धे पर ढोए जा रही है। 

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