"कागज़ कलम"(कविता)
बड़ा अजीब सा रिश्ता है।
कागज़ और कलम के बीच,
जो कलम का सुख, दुःख,
शिकायते, सह जाता है।
दोंनो एक दूसरे, के बिना।
रह नही सकतें कलम एक,
नज़रिया है। तो कागज़ उन,
पन्नों का आधार, कलम,
तलवार तो कागज़ उनकी,
ढाल, कागज़ कलम, की।
दोस्ती, पुरानी जैसे रेत के,
ऊपर तैरता, समंदर, का।
पानी जब दोनों की आपस,
में गुफ्तगू, होतीं है लोग।
इन्हें शब्दों, का नाम देते है।
एक बया करे तो दूजा करे,
मेहसूस इस संसार में है।
यहीं दोनों की सही पेहचान।
Written by नीक राजपूत
superb... nice...
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