"दोहे"

चूल्हे की रोटी गयी,तड़का छौंकी दाल।

मठ्ठा मटका से कहे,शहर बन गया काल।।


गाँव सिमटते जा रहे,खेत,बाग,खलिहान।

गमलों की खेती बढ़ी,ठीक कहें परधान।।


कुआँ, ताल,पोखर,नहीं,नहीं गाँव चौपाल।

नेता कहते फिर रहे,कृषक बड़ा खुशहाल।।


ऊपर नीचे फ्लैट में,रहते भाई चार।

बिना बात खुलकर सुबह,होती नित तकरार।।


अपनों से नाता नहीं,दिनभर आते फोन।

बैंक सेठ पीछे पड़े,अदा करो तुम लोन।।

Written by मयंक किशोर शुक्ल

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