"धरा का मिजाज जुदा सा लगता है"(कविता)

इस धरा का मिजाज जुदा सा लगता है

सिसकियों में भी कहकशा सा लगता है


बेपरवाह हो रहा इंसान आजकल

इंसान ही इस धरा का कातिल लगता है


बसंत का रंग उड़ा उड़ा सा रहता है

हरा भरा जंगल बंजर सा लगता है


 फुहारों सी बरसात अब कहां होती है

 तालाबों में भी सूखा सूखा सा लगता है


अलाव गुजरे जमाने की बात हो गये

ठंडक पे भी अब ग्रहण सा लगता है


सूरज के साथ जल रहा इंसान भी

सारे मौसम इंसानों का अंजाम लगता है


अनगिनत पापों को झेल रही गंगा

सन्यासी भी मेला मेला सा लगता है 

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