"जेठ की दोपहरी"(कविता)

 सुबह-सुबह गुनगुनी धूप में 

औषधि बहती गहरी। 

महुआ जामुन बेल पक गये,

टपके आम दसहरी। 


गेहूं चना सरसो खलिहान से 

घर आ गयी है अरहरी। 

आग उगलती हवा का झोका 

श्रम विन्दु से रसती चुनरी। 


गरम ईट गिट्टी लोहा ले 

बाल श्रमिक ढोता टिकी दोपहरी। 

हाथ मे डंडा कमर बधी है 

सर पर फूस की गठरी। 


पेड की छाँव मे ऊंघते किसान की 

रोटी ले भगी गिलहरी। 

बूंद-बूंद पानी अमृत लागे 

जेठ की दोपहरी। 

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