"अस्तित्व"(लघुकथा)
अस्तित्व
हमने अपने पैरो को मोड़कर चेहरे को कस कर दबा रखा था। शरीर भय से थर-थर कांप रहा था।मूसलाधार बारिश से छत का पानी ओवरफ्लो होकर आँगन मे लगे जाल से इतना तेज गिर रहा था, जैसे कोई जल प्रपात फूट गया हो।
मन मे अनेक विचार भ्रमण कर रहे थे, पूर्व मे प्रकृति की कई घटनाओ को याद कर मन सिहर उठा था। जैसे उत्तराखंड मे बादल फटने से हजारो लोगो की मौत नेपाल मे आये भूकंप से अनेको ईमारत ध्वस्त हो गई कितने लोगो की मौत हो गई अब कोरोना ने भी कहर मचाया हुआ है।इसके पूर्व आई सुनामी ने कितने लोगो की जान लील ली थी,धुर्वों की बर्फ का पिघलना तापमान का अधिक बढना, हमारे द्वारा की जा रही नदियों की अंधाधुंध खुदाई पहाड़ो को नष्ट कर वनो की कटाई से पर्यावरण असंतुलित हो गया है।
जैसे पृथ्वी हमसे कह रही हो की तूने मेरे अस्तित्व को संकट मे डालकर अपने पैर मे कुल्हाडी मार ली है तभी हमारी आँखे खुलीं हमने यह प्रण लिया की अब अधिक से अधिक पौधे लगायेंगे जिससे हमारे प्राणों की रक्षा हो सके और हमारा अस्तित्व भी नष्ट होने से बच सके।
nice.... superb.....
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