"कठपुतली"(कविता)

उंगलियों, का  है   ये  खेल, 

  धागा, संग, बंधा था  जिन।

का   मेल, कलाकारी,  थी। 

  हाथों की  अनोखी,   जिस, 

से मनोरंजन,  की होती थी

  शरुआत।   उंगलियों    के,

सहारे   होता था  ये  खेल,

  जिससे,   महफ़िलो।    में,

गूँजति  थी  तालियों   की, 

  आवाज़   बच्चे   बूढ़े  को, 

था  ये खेल  पसँद,  सभी। 

  का मन  बहलाने, के लिए,

करतें थे  नाच गाना  और,

  कर्तब होकर खुद ना खुश, 

हमारी तर्ह कठपुतली भी।

  होना  चाहते, थे  स्वतंत्रत,

लेकिन  क्या करे ज़िन्दगी

  उनकी बंधी, थी  धागों से, 

और अबतो मनोरंजन ही।

  था  उसका  जीवन   मंत्र।

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