"गांव की याद आती है"(कविता)

वो गांव के परिंदे

शहर की  भाग दौड़ में 

थक कर जब चुर हो जाते है


तब गाँव की यादों को 

सीने से लगाये तरसते है 

चूल्हे की रोटी को

सिलबट्टे पे बनी 

लहसुन की चटनी को।

वो पेड़ की ठंडी छाव को

 दादी नानी की लोरी को

कुँए के ठंडे  पानी को

जिस को पीकर आत्मा

 तृप्त हो जाती थी

ओर ये शहर की प्यास 

पानी से भी नही बुझती।


याद आती है वो गाँव की यादें

जहाँ अपना सब छुट गया

इस शहर ने सिर्फ पेट भरा

मगर दिल में सब कुछ 

सुनापन कर दिया।


शहर की चांदनी रातें भी

 अब मुझ को नहीं लुभाती है

शहर का सन्नाटा कानो को

 खाने को दौड़ता है


वो  रात में अलाव जलाकर 

 रात भर बतियाना

वो रिश्तो की गर्मी

आपस में हंसी ठिठोली

शहर में बहुत याद आती है 

वो गांव की रातें


जब दिनभर की भागदौड़ करके

शाम को इस अजनबी शहर में

खुद को अकेला महसूस करता हूं

तब गांव की बहुत याद आती है

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