"मैं एक परिंदा हूँ"(कविता)

नोट:मेरी यह कविता 4,साल पुरानी है।और 4,साल पहले 2018 में आल इंडिया रेडियो पर रिकार्डिंग है और प्रसारित हो चुकी है।।


मैं एक परिंदा हूँ तेरी जहाँ का।

उड़ता ही जाऊ, हौसला है उम्मीदों का।।

इस धरती से गगन तक फैला मेरा आशियाना।।

हरी भरी धरती बूंदों का मेरा आसमान।।

.....मैं एक परिंदा हूँ......


ये सासें देता है जीवन भर का।।

न हमसे कोई मोल लेता है।।

धरती से जुड़ा, धरती पे तन के खड़ा।।

मैं माटी का पुतला,तेरे हाथों का।।

.......मैं एक परिंदा हूँ......


कई बार गिरा- गिर कर सँभला हूँ।।

रोज माटी को अपने माथे से लगाता हूँ।।

खूब इसमें खेल -खेला करता हूँ।।

और धरती माँ की जय-जयकार करता हूँ।।

.....मैं एक परिंदा हूँ........


भवरे बैठे फूलों पर लिए उमंग।।

तरह-तरह की खुश्बू रही महक।।

गुन-गुना रहे परिंदे चमन-चमन।।

आओ मिलकर हम सब करे,धरती माँ को नमन।।


...धरती माँ को नमन.....

.....मैं एक परिंदा हूँ तेरी जहाँ का......

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