"अस्थि-कलश"(कहानी)

अस्थि-कलश

घर के वातावरण को देखकर कोई भी यह नही कह सकता है कि तीन दिन पहले ही इस घर में मेरी माँ की मृत्यु हुई हैं। माँ की मृत्यु पर भाई-बहिन, बेटे-बेटियाँ, व सभी नजदीकी रिश्तेदारों ने रो-रो कर बुरा हाल कर दिया था व ऐसा लग रहा था कि इस गंभीर सदमें से पूरा परिवार शायद जीवन भर नही उबर पायेगा मगर यह क्या अभी तो माँ की मृत्यु को तीन दिन भी नहीं हुए थे कि घर में जश्न जैसा माहौल लगने लगा। 

माँ का अन्तिम संस्कार कर घर आने के बाद रात्रि को मेरी चारो बुआएँ मेरे पास आई और बोली- बेटा भारी वज्रपात हुआ हैं मगर उसकी आत्मा की शांति के लिए सभी संस्कार विधिवत रूप से सम्पन्न करना ही उन्हें सच्ची श्रद्धाजंली देना है। इसी कड़ी में चारो बुआएँ यह कहना नहीं भूली कि माँ की अस्थियों को शीघ्र हरिद्वार में विधि-विधान से गंगा में विसर्जित किया जाना आवश्यक है। 

वे अपने साथ हरिद्वार यात्रा का पूरा कार्यक्रम लिख कर लाई थी जिसका पर्चा मुझे पकड़ा दिया जो रात को सोने से पूर्व मैनें देखा तो मेरा मँुह खुला का खुला रह गया और मेरी आंखो से नींद गायब हो गई। पर्चे में पूरी हरिद्धार यात्रा का वर्णन था जिसमें जाने वाले लगभग सभी नजदीकी रिश्तेदारों की बहन बेटियाँ, जवाईगण व परिवार के प्रमुख सदस्यों सहित कुल मिलाकर करीब 50 सदस्यों के नाम थे। साथ ही पूरी यात्रा का संपूर्ण विवरण, जाते वक्त रास्तें में कौन-कौन से धार्मिक व पर्यटक स्थलों से होकर जाना हैं व वापसी में कौन-कौन से धार्मिक व पर्यटक स्थलों से होकर आना हैं, खाने पीने का पुरे रास्ते का मीनू व ठहरने की उत्तम व्यवस्था व यात्रा के लिए ए/सी वोल्वो बस आदि तक का उल्लेख किया गया था। उनके द्वारा दिये गये पर्चे ने मेरी चिन्ताओं को बढ़ा दिया क्योंकि इस यात्रा पर करीब दो लाख रूपये का अतिरिक्त व्यय होना था जो मेरी माँ के अन्तिम संस्कार के पीछे के सम्पूर्ण कार्य के बजट से भी ज्यादा था। मुझे चिन्तित देखकर पत्नी ने पूछा तो मैंने उसे सारी बातें बताई तो उसका भी चिन्तित होना वाजिब था। मगर उसने यह कहकर, कि इस मौके पर किसी को नाराज करने पर हमारा सारा काम बिगड़ सकता है व जग हंसाई होगी इसलिए जैसा वो कहे वैसा ही कीजिए, उनकी बात पर मुहर लगा दी। 

मैंने रात्रि में विचार किया कि बुआओं से बात कर हरिद्वार जाने के लिए कुल चार पाॅच लोगों का दल बनाकर ट्रेन से भेज देगें। मगर सुबह सुबह ही सारे रिश्तेदार व परिजनों ने मुझको घेर लिया और बोले की हम सभी हरिद्वार जाने की तैयारी कर के आये हैं आप तुरन्त प्रोग्राम बतावें ताकि उनके पीछे रह गये बच्चों आदि को समय रहते बूला सके। मैनें बुआओं को एकान्त में ले जाकर समझाने की पूरी कोशिश की कि इतने वृहद स्तर पर यात्रा करवाने की मेरी हैसियत नही है इस पर बुआएॅ नाराज होकर बोली ऐसे समय में पैसों की तरफ नही देखना चाहिये जग व समाज में हसांई हुई तो हमारी भाभी की आत्मा को कभी शांति नही होगी।

  उन्होने यह भी कहकर भी मुझे डराने की चेष्टा की कि ऐसे मौके पर किसी को नाराज नही करना वरना कोई भी रिश्तेदार बीच में चले गये तो बहुत बदनामी हो जायेगी। पैसा तो हाथ का मैल है इन्सान ही कमाता हैं माँ के पीछे कार्यक्रम करने का मौका जिन्दगी में नही आना हैं। इसे हाथ से जाने मत देना समाज में तेरा रूतबा बढे़गा। 

बदनामी, क्लेश व जग-हंसाई का डर, माँ की आत्मा की शांति व बुआओं व रिश्तेदारों के भिन्न भिन्न सम्बोधनों ने मेरे विरोध को कमजोर कर दिया व मुझे उनके बनाये गये प्रोग्राम पर सहमति देनी पड़ी। 

मेरी सहमति ने पूरे परिवार व रिश्तेदारों में संजीवनी का कार्य किया व उन्हें मेरी माँ की मृत्यु के शोक से उबार दिया। हरिद्वार यात्रा को मेरे द्वारा हरी झण्डी दिखाने के आधे घण्टे बाद ही घर का सारा माहौल बदल गया। सभी जोर शोर से तैयारी में लग गये कोई अपने बच्चों को तो कोई अपनी ननद व सास को तो कोई अपने पति को फोन खडखडाकर नियत समय से पहले पहुँचने के संदेश देने लगे व यात्रा की तैयारी में लग गये। 

पिछले दो दिनों से मेरे घर का माहौल किसी भी शादी के घर के माहौल से कम नही लग रहा था।  कोई वहाॅ से शाॅपींग की लिस्ट बना रहा था तो कोई पांताजली योग पीठ, ऋषिकेष, लक्ष्मण झूला, राम झूला, शान्तीवन आदि समस्त धार्मिक व पर्यटक स्थलों को अच्छी तरह से देख पाने के लिए गाइडबुक्स साथ रखने की बात कर रहा था। कोई वहाँ से गंगा जल लाने, तो कोई वहां से लौटकर बंधु बांधवो को देने के लिए भेंट में क्या लिया जाये इस पर चर्चा कर रहे थे। परिवार का कोई भी सदस्य मेरी माँ की अस्थियों के विसर्जन के कार्यक्रम का जिक्र तक नही कर रहा था। मेरी माँ की अस्थियों के गंगा में विसर्जन का कार्यक्रम उन सभी के लिए घूमने, फिरने, सैर सपाटे करने व छुट्टी मनाने जैसा था। 

  देखते ही देखते मेरा शोकग्रस्त परिवार किसी बडे आयोजन की खुशी में परिवर्तन हो गया। घर में एक मेरे कमरे के अलावा किसी कोने में माँ की मृत्यु का शौक दिखाई नही दे रहा था। किसी शादी की तैयारियों की तरह इस यात्रा की तैयारी भी दो दिन तक चलती रही और मैं इस यात्रा की अर्थ व्यवस्था हेतु दो लाख रूपये के लिए अपनी पूर्व संचित राशि का बडी मुश्किल से दो दिन की भाग दौड़ के बाद व्यवस्था कर पाया। अचानक आई इस नई आफत से निपटने के लिए धन की व्यवस्था हो जाने के बाद मैने संतोष की सांस ली। दूसरे दिन सुबह करीब दस बजे हम सबको हरिद्वार यात्रा पर निकलना था। मैने स्वयं को घर पर ही रूकने का निश्चय किया लेकिन सबने मेरे इस निर्णय को सिरे से नकार दिया। क्योकि सबको पता था कि मेरी अनुपस्थिति में किसी रिश्तेदार को छोटा मोटा मार्ग व्यय करना पड़ सकता था। अंततः दूर के रिश्ते के दो भाईयों को मैने अपने घर पर रूकने को तैयार किया गया ताकि पीछे गाॅव वालें व मित्रों आदि के आने पर घर खुला मिले। 

मेरा परिवार किसी भी दृष्टि से शोकसंतप्त नही लग रहा था। मैं यह सब देखकर अत्यन्त दुःखी था। आर्थिक रूप से होने वाले नुकशान के लिए मुझे जितना दुःख नही हो रहा था उतना रिश्तेदारों की इस मौके पर खुशी को इजहार करने के ढंग को देखकर हो रहा था। सबने अपने रिश्तेदारों को इस यात्रा में शामिल होने को बुला दिया था। मेरा घर पूरी तरह से भर चुका था। हमारे परिवार के किसी भी शादी विवाह या अन्य किसी मौके पर इतने रिश्तेदार कभी भी इकट्ठे नही हुए थे जितने इस हरिद्वार यात्रा के मौके पर इकट्ठे हुए थे। 

मै शुरू से बाहृय आडम्बरों, फिजूल खर्ची, विवाह व मृत्यु के पीछे अनावश्क खर्चो का घोर विरोधी रहा व ऐसा कोई भी खर्चा करता था उस व्यक्ति का विरोध करता था मगर मुझे पता नही था कि एक दिन मुझे स्वयं भी अपने खिलाफ खडा होना पडेगा। 

रोज रात को सोते वक्त विचार करता व दृढ संकल्पित होता कि मुझे अपने उसूलों से नहीं हटना चाहिये। मै स्वयं हरिद्वार अस्थियाॅ विसर्जित करने को गैरजरूरी मानता था। मेरा अपना मत था कि दिवगन्त आत्मा के शरीर की अस्थि किसी के पाँव के नीचे नही आनी चाहिये इसलिए उनको पानी में विसर्जित किये जाने की व्यवस्था की गई है। मेरा स्वयं का यह मानना था गरीब लोग हजारो रूपये खर्च कर अस्थियां गंगा में विसर्जित करने क्यो जाते है हमारे आस पास के किसी कुंए में, नदी में या बांध में भी अस्थियाॅ विसर्जित की जा सकती है। 

मैने मेरे घर में ऐसा कोई काम पडने पर ऐसा ही कर उदाहरण प्रस्तुत करने का पक्का इरादा किया था मगर मेरे रिश्तेदार व परिवार के सदस्यों ने मेरे इस इरादे की हवा निकाल दी। 

हर रात पूनः दृढ़ सकल्पित होकर इस अस्थिविसर्जन कार्यक्रम को निरस्त करने का प्लान बनाता व सुबह नाश्ते में चर्चा करना शुरू करता इससे पहले ही चारों तरफ से मेरी घनघोर बाणो की वर्षा होनी शुरू हो जाती व मेरी बात को वही विराम लग जाता। 

कल रात्रि को मैने दृढ प्रतिज्ञ होकर निर्णय लिया कि मै, पत्नी व बच्चो से इस मुददे पर बात को समझाकर उनको पक्ष में कर अन्य रिश्तेदारों को सहमत कर लुंगा। मैने सुबह सुबह अपने कमरे में पत्नी व दोनो बच्चों को बुलाकर उन्हें बताया कि यह हरिद्वार यात्रा निरर्थक है। व्यर्थ में दो लाख रूपये का खर्चा हो जायेगा। जो अभी करने की हैसियत हमारी नही है हम अम्मा की अस्थियाॅ को पास ही के बांध में विसर्जन कर देते है। 

मेरी इस बात से वे सहमत तो अवश्य थे मगर पत्नी बोलीः- इससे हमारी समाज में, रिश्तेदारो में नाक कट जायेगी, हमसे बहुत गरीब लोग भी अपनी माँ की अस्थियों का विसर्जन गंगाजी में ही करते है फिर हमारे बच्चे भी बडे हो गये है। हमें उनके संबंध भी तो समाज में करने है। यदि यह कार्यक्रम निरस्त कर दिया तो बहुत बदनामी होगी। अलावा इसके अम्मा की आत्मा को भी शांति नही मिलेगी। मेरी पत्नी ने यह भी बताया कि सारे रिश्तेदार रोज यही बात करते है कि अस्थियाॅ गंगा में विसर्जित करने से ही मृत आत्मा को स्वर्ग प्राप्त होता है अन्यथा आत्मा भटकती रहती है व उसके परिवार के इर्दगिर्द घूमती रहती है व बददुआ देती है जिससे पुरा परिवार चैपट हो जाता है। वे रिश्तेदार ऐसे कई मन गढन्त किस्से सुनाते है जिससे अस्थियाॅ गंगा में विसर्जित नही करने पर कई परिवार बर्बाद हो गये, किसी को लाइलाज बीमारी हो गई तो कोई दिवालिया हो गया तो किसी परिवार में अकाल मृत्यु हो गई यानि हर कोई परिवार में अशुभ होने को इस कार्यक्रम को नही करने का प्रत्यक्ष परिणाम बता रहे है। 

रिश्तेदार द्वारा सुनाये गये इस तरह के कई भयानक मनगढत किस्सो से मरी पत्नी पूरी तरह से डरी हुई थी और वो कोई जोखिम लेना नही चाहती थी। उसने साफ शब्दों में कह दिया कुछ भी करेगे दुःख देखेगे, घर खर्च व बच्चों के खर्चे में कटौती करेगे मगर इस कार्यक्रम को तो कैसे भी करके पूरा करना ही पडेगा। मैनंे बच्चो की तरफ आशा भरी नजरों से देखा मगर उन्होने भी पत्नी की बात का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन कर दिया। ऐसे में मै एकदम अकेला रह गया और मैनें पाया कि मै कितना निसहाय, निर्बल व कमजोर हो गया हुॅ जिसेे न चाहते हुए भी अपने उसूलों की कुर्बानी देनी पड रही है। मेरी अन्तर्रात्मा मुझे बार बार धिक्कार रही थी। 

पूरा घर उत्साह से परिपूर्ण था। सभी ने सारी पैकिंग कर दी थी सबने कल गंगा की लहरों से अठखेलियाँ करने की तैयारियाँ कर दी थी व सोच रहे थे कि कब यह रात बीते ओर वे इस यात्रा के लिए प्रस्थान करे।  

घर परिवार के सभी लोग उत्साह, उमंग के साथ आगे आने वाले सात सात दिनों की यात्रा के आनन्द में गोते लगाते हुए सो रहे थे। मगर मुझे यह रात बहुत भारी लग रही थी। मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही थी मेरे दिमाग में मेरे सिद्धान्तों व समाज के भय के बीच अन्तर्द्धद चल रहा था। मैने देखा घडी में रात्रि के दस बज रहे है। मैने सब तरफ से हाथ मारकर देख लिया मगर किसी ने मेरी सहायता नही की।  

ऐसा कहा जाता है कि व्यक्ति को जब किसी तरफ से सहायता नही मिले तब उसे भगवान से सहायता मांगनी चाहिये। 

मैने भी भगवान से प्रार्थना की कि हे प्रभु अब आपका ही सहारा है आप ऐसा कोई चमत्कार कर दो जिससे मेरे सिद्धान्तों की बलि होने से बच जाये। मैने भगवान से कहा कि आपने कई चमत्कार किये है एक चमत्कार मेरे लिए भी कर दो, इतना कहकर मै सो गया दिन भर की शारीरिक व इतने दिनों की मानसिक थकान से मै जल्द ही गहरी नींद में चला गया। अचानक किसी ने जोर से मेरे कमरे का दरवाजा खटखटाया। मै गहरी नींद से जागा। घडी में देखा रात्रि का एक बजा है। 

मैने दरवाजा खोला व देखा कि मेरे खेत पर काम करने वाला हाली (हासल पर कृषि कार्य करने वाला) घबराया सा हाथ जोडकर मेरे सामने खडा था। मुझे देखते ही वो मेरे पांवो में गिर गया व जोर जोर से रोने लगा। 

मैने पूछा क्या हुआ मगर उसका रोना बढता गया। मै उसे कमरे के भीतर ले गया और दरवाजा बंद कर दिया ताकि घर के अन्य सदस्यों की नींद खराब न हो।  

मैने उसे पानी पिलाया व सांत्वना दी व पूछा कि बात क्या है तब उसने बताया कि शाम को ही उसकी माँ को भारी पक्षाघात हो गया है व कल सुबह दस बजे तक हर हालत में आॅपरेशन करवाना आवश्यक है अन्यथा उसकी माँ की मृत्यु निश्चित है। आॅपरेशन में डाक्टर ने दो लाख रूपये का खर्चा बताया है वो गिड़गिड़ाकर अपनी माँ की जान की भीख मांग रहा था। मुझसे दो लाख रूपये उधार मांग रहा था व बदले में सारी जिन्दगी मेरे खेत पर काम कर पाई पाई चुकाने का विश्वास भी दिला रहा था। 

मै भारी धर्म संकट में पडा था। यात्रा के खर्चे के लिए दो लाख रूपये की व्यवस्था बडी मुश्किल से करके अलमारी में जरूर रखे हुए थे मगर वो राशि मैं उसे कैसे दे सकता था। वो बहुत गिड़गिड़ा रहा था बार बार मिन्नतें कर रहा था। मेरे मन में फिर अंतर्द्धन्द्व हावी हो गया एक तरफ मेरी माँ की अस्थियाँ का विसर्जन व दूसरी तरफ उसकी माँ की प्राण रक्षा। एक तरफ मेरी माँ की आत्मा की शांति व दूसरी तरफ उसकी माँ की जिन्दगी, एक तरफ मेरे रिश्तेदार परिवार व समाज की बदनामी व दूसरी तरफ उसके परिवार की खुशियाँ, एक तरफ समाज, धर्म, रिश्तेदारो व परिवार का भय तो दुसरी तरफ नैतिकता व मानवता, खडी थी। इस दोनो में मुझे निर्णय लेना था। 

तभी अचानक न जाने कहा से मुझमें अदृश्य शक्ति का संचार हुआ और मै उस कमरे में गया जिस कमरे में अलमारी में दो लाख रूपये व मेरी माॅ की अस्थियाॅ का कलश रखा हुआ था।

मै अलमारी में से वो दो लाख रूपये और माँ की अस्थियों का कलश लेकर बाहर आया। रूपए उसको सुपुर्द करते हुए कहा कि इन दो लाख रूपये से अपनी माॅ का इलाज करवा देना और मेरी मां की आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना। हाली ढेर सारी दुआएॅ देता हुआ वहाॅ से निकल गया। मैने पीछे से उस अलमारी के ताले को तोड दिया व अलमारी के सारे सामान को अस्त-व्यस्त कर अलमारी टूटी हुई अवस्था में खुली छोडकर बाहर आ गया और अम्मा का अस्थि-कलश अत्यंत सावधानी से गैरेज में अपने टैक्ट्रर की सीट के नीचे छुपा दिया और वापस आकर अपने कमरे में सो गया। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे सीने से बहुत भारी बोझ उतर गया हो। सारी चिन्ताओं, बाधाओं को पार कर कोई व्यक्ति मंजिल तक पहुॅचता है वैसा ही मै महसूस कर रहा था। जल्द ही मै गहरी व चैन की नींद सो गया। 

सुबह करीब सात बजे पत्नी व सारे रिश्तेदार बदहवासी की हालत में भागकर मेरे पास आए और मुझे झिझौडकर जगाया। पत्नी बेहाल थी। घबराते हुए उसने बताया कि गजब हो गया रात्रि को घर में चोर घुस आये और अलमारी तोडकर उसमें पडे सारे रूपये व अम्मा की अस्थियों का कलश चुरा कर ले गया। अब हम हरिद्वार कैसे जायेगे व अम्मा की आत्मा का क्या होगा। 

मैनंे उठकर देखा पूरे घर में कोहराम मचा हुआ था सभी को मेरे दो लाख रूपये की चिन्ता नही थी बल्कि अम्मा की अस्थियों के कलश की चिन्ता थी। सभी एक दूसरे को  कह रहे थे कि अम्मा की अस्थियो का कलश ढँूढो उसको ढॅूढना जरूरी है वरना हरिद्वार यात्रा निरस्त हो जायेगी परिवार व रिश्तेदारो ने पूरे गाॅव में सभी जगहों पर उक्त कलश को ढूॅढने की कोशिश की मगर कलश नही मिल पाया। मैने भी ढूंढने का दिखावा किया व अन्ततः हरिद्धार यात्रा अस्थि कलश के अभाव में निरस्त हो गई। उसी दिन शाम तक मेरा पूरा घर खाली हो गया। सभी रिश्तेदार निराश मन से मुझे चोरी होने की सात्वंना देते देते विदा हो गये। 

शाम को मै पत्नी व बच्चों सहित अस्पताल में अपने मजदूर किसान की माॅ को देखने गया। उसका आॅपरेशन सफल हो गया था वो होश में आ गई थी। वो धीरे धीरे बात भी कर रही थी। 

उसने मुझे पास बुलाकर कान में धीरे से कहा बेटा तुमने मुझे नई जिन्दगी दी है भगवान तुम्हारी माँ की आत्मा को शांति प्रदान करे। 

मैने अगले दिन सवेरे सवेरे पत्नी व बच्चों को खेत पर जाने व वही खाना बनाकर खाने का प्रोग्राम बनाया। पूरे रास्ते गाडी में पत्नी बता रही थी कि यदि चोर कलश लेकर नही जाता व खाली रूपये ही लेकर चला जाता तो कितनी भारी आफत आ जाती। वो बार बार चोर को रूपये के साथ साथ कलश ले जाने के लिए धन्यवाद दे रही थी जिसकी वजह से हम हरिद्धार यात्रा व समाज की बदनामी से बच गये।

उसे दो लाख रूपये चोरी जाने का दुःख अवश्य था मगर समाज की बदनामी से बचने का चैन उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था। कुँए पर जाकर विधिविधान से स्नान आदि कर मैने टैªक्टर की सीट के नीचे से चुपचाप माँ की अस्थियों का कलश निकाल कर लाया। यह देखकर मेरी पत्नी व बच्चे अचम्भित रह गये मैने उन्हें पूरी घटना सुनाई व पूरे विधान से कलश की पूजा कर माँ की अस्थियों को कुएँ में विसर्जित कर दिया। इस घटना से मेरी पत्नी व बच्चों की मेरे में श्रद्धा ओर बढ़ गई। रात्रि को सपने में मेरी माँ आई और मुझे आशीर्वाद देकर बोली बेटा मेरी आत्मा को सचमुच में शांति मिल गई। मेरी मां की आत्मा की शान्ति के लिए इससे बढिया तरीका कुछ हो ही नही सकता था।

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