"कील"(कविता)
क्षणभंगुरता लिये मंझधारें और है नैया , अंधेरा में तीरों को चलाया जाहिल ।
शब्दाकाशों के तारें क्या असली खेवैया , मछलियां , नदियाँ और समंदरों तक कुटिल !
चंदा , बादलों की मृगतृष्णा में गैया , फंसे हैं नयन और जीना है मुश्किल ।
कभी बहा पछिया और कभी बहा पुरवैया , हवा में गर्मी और सूरज पे कील ।
ख्वाबों से तन्हा हकीकतों की बैया , शूलों पे यकीनें तो कहां जाहिल ?
ताकीदें साया इश्क़ हेतु रखवैया , चंदनों पे सर्पों से क्या -क्या हासिल ?
जहरीला आईना भी नकलची है भैया , जिस्मों के तले हीं तो दिल ।
परिंदों का सफरनामा कहाँ तक मैया , कलियाँ हेतु जमीं और साहिल !!
गवाही कहां तक दिया है महफिल , खेले जाएंगे कहां जुल्मों की तालतलैया ?
कब्रों में नहीं ख्वाहिशों का गवैया , राही राहों से हो पहुंचा मंजिल ।
Written by विजय शंकर प्रसाद
Nice lines...
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