"होली"(कविता)


कवयित्री जी ! दुपट्टा लहराया ,

 चेहरे की अदा भाया ।


जुल्फों ने क्या भरमाया ,

साहिल कैसे है पराया ?


छुईमुई सहृदयता क्यूँ पढाया ,

नींदें हमसे क्यूँ भगाया ?


आरोपों से दिल घबराया ,

लगा कि होली जगाया ।


इत्रों , हवाओं की काया - 

नशा देशहितों पे सुझाया ।


महफिल को रंगीला बनाया ,

बारिशों से ख्वाबें नहलाया ।


अर्जी से मर्जी  माया , 

चंदा ने मुहर लगाया ।


कविता में  भावी समाया ,

श्रृंगारें भी आकार पाया ।


फूलों संग कांटे सहलाया , 

इश्क की व्यथा सुनाया । 


नदियों में मछलियां जायां , 

जालें फंसाने को बढाया ।


अंधेरा तभी तो चिल्लाया , 

रोशनी हेतु सितारा टिमटिमाया ।


मांझी गंदगी देखते चेताया ,

जवानी बहुतों को सताया ।


आईना दीवारें नहीं गिराया ,

 बुढापा ने भी उलझाया ।


सच्चा मिथ्या से मुरझया , 

आलोचना रूपी फलें खाया ।


सियासी पहरा क्यूँ आया , 

क्या खुद्दारी है गमाया ?


आग नहीं क्यूँ शरमाया ,

सवालें कैसे है इतराया ?


माचिसों की तिल्ली जलाया ,

समंदरों तक साक्षी छाया ।


कुर्बानी यूं तस्वींरें नुमायां ,

 तपती रेतें  गति लाया ।


तभी भौरा है गुनगुनाया , 

रसपानें किया और गाया ।


रातें किसने है थमाया ,

दिनों में क्या उबाया ?

Written by विजय शंकर प्रसाद

Comments

  1. महफिल को रंगीला बनाया ,

    बारिशों से ख्वाबें नहलाया ।
    loved it....

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