"अपनों के जुबां गैरों के कान"(कविता)
जुबां कानों में फुसफुसा रहा हैं मसला क्या हैं
धुआं धुआं सा उठ रहा आसमान में जला क्या हैं
मेरे घर की बरबादियाँ मेला सी हैं तुम्हारी खातिर
हंसते हुए पूछता हूँ कि फ़िर जलजला क्या हैं
खुशियां रूठ कर जा रहीं मेरे दुश्मनों के घर
ग़म कर रहे मेरे फटे से चादर में बसर
खुशियां गम हंसी आँसू इनमें बला क्या हैं
सहर बीत गया अब रात ज़ाहिर हुए
अदावतें करने में अब दोस्त माहिर हुए
रौशनी फ़िर भी ना बुझी तो फ़िर ढला क्या हैं
जुबां कानों में फुसफुसा रहा हैं मसला क्या हैं
धुआं धुआं सा उठ रहा आसमान में जला क्या हैं
Written by #अविनाशरौनियार
धुआं धुआं सा उठ रहा आसमान में जला क्या हैं
ReplyDeleteNice line....