"रुक जाना नहीं, तू कहीं हार के"(कविता)
सदा गति है,लिखा धरा की नियति में जिससे पल में बदले विचार बहार के। दौडे है, पहाडों जैसे सब बोझों को ले, देती है सलोने बूंदे हमें अपने फुहार के। सिखाती,रुकूॅ, खुशियों की हो इति श्री, मन से रूक जाना नहीं तू कहीं हार के। ।1। आजीवन धडके, यह दिल हम सबका, दे रहे,सम्बल रक्त संचार मानव गात के। सिखाती रुकूॅ,तो वजूद न हो किसी का, औषधी भी सारे व्यर्थ हैं, इस संसार के। नीले अम्बर में उडना है ,अपने बल भर, तो मन से रुक जाना नहीं तू कहीं हार के। ।2। Written by ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला