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"रुक जाना नहीं, तू कहीं हार के"(कविता)

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सदा गति है,लिखा धरा की नियति में  जिससे पल में बदले विचार बहार के। दौडे है, पहाडों जैसे सब बोझों को ले, देती है सलोने बूंदे हमें अपने फुहार के। सिखाती,रुकूॅ, खुशियों की हो इति श्री, मन से रूक जाना नहीं तू कहीं हार के। ।1। आजीवन धडके, यह दिल हम सबका, दे रहे,सम्बल रक्त संचार मानव गात के। सिखाती रुकूॅ,तो वजूद न हो किसी का, औषधी भी सारे व्यर्थ हैं, इस संसार के। नीले अम्बर में उडना है ,अपने बल भर, तो मन से रुक जाना नहीं तू कहीं हार के। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

"मत कर अभिमान : जीवन,बुलबुला समान"(कविता)

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 तूने कुछ अपने, सुख सुविधाओं को पाने, मनोहारी नीली  छतरी की, उदार धरा को, नियति के उपकार और उपहार को, जाने, कितने बेदर्दी  से नाश किया,कुछ पाने को। नदियों ने इठलाना छोडा, अंधों के जिद पे भावों ने रचना त्यागा, झूठे वैभव पाने को विषैली गैसें दी,सरल हवा के पावन मन में,  उर्वरक ने बंद किया,जैवी खाद परम्परा को। ।1। धरा का सावन छीना,और नभ का नीलापन, वन के वीरानापन ने छीन लिया आक्सीजन, संगमरमरी दीवानों ने,तपित किया पर्यावरण, मानव होके तेरे मन ने तांडव का किया वरण। मन किस स्तर का जो लाशों का गीध बन गया, सीता पर शहीद हुए जटायु का नाम डूबा दिया,  मानवता की परीक्षा है,इस जाति का मान बनो, बुलबुला सा मानव जीवन,इसका सम्मान करो। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

"जीवन संग हो: मूल्य का आभास"(कविता)

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 हे दया निधान,जब तुमने दुनियाँ बनाई, फिर उसे बसाई तो जोडे के संग बसाई, जैसे हवा संग साँस,निराशा  साथ आस, पानी साथ  प्यास,शब्द के संग आकाश, धरा साथ दी उपज, कंपन साथ आवाज, जीवन  संग कर दिया, मौत का आगाज, मेघ साथ गर्जन, और मोर के साथ नर्तन, दिल के संग धडकन,सजने के लिए दर्पन। ।1। ऐसा न हो जाए,जीवन के लिए वायु न हो, बदला मौसम हो,पर बदला जलवायु न हो प्यास है जल न हो, धरा है पर उपज न हो, मुख पे न करुणा,पुरइन है पर कमल न हो, दया है, धर्म नहीं,दिल है पर धडकन न हो,  ज्ञान है समझ नहीं,बुद्धि है पर मंथन न हो, प्रीत के गीत, गीत संग जीवन संगीत न हो, दुख के बाद सुख,मन  साथ मनमीत न हो। ।2। हे करुणा के सागर, अब इन पर  दया  करो, ये जीवन निर्जीव मशीन न हो, कुछ तो करो, कैसा वह संसार, जहाँ जीवन का सार न हो, दंभ,द्वेष पाखंड रहित सब हों, कुछ तो करो,  क्षणभंगुर जीवन, संग मूल्य आभास तो करो, सागर में मचले रत्नों से , दर्शन लाभ तो करो, दाता के हों दिल से रिश्ते,कोई रंक पिसता हो, हाथ मदद में बढे,किसी तन पे खून रिसता हो। ।3। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला

"पहले गुड्डी थी,अब चिड़िया हूँ"(कविता)

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पापा ,भइया ने हमारा गुड्डा ले लिया, माँगती हूँ वह फिर जोर जोर रोता है। अब हमने प्यारा गुड्डा उसको दे दिया, उसके रोने से हमारा दिल धडकता है। अब मैंने आपके हाथ, हथेली दे दिया, "सोन चिरैया"के गाने का मन होता है। ।1। ये उंगलियाँ ,आपकी मुटठी में है दिया, अक्कड बक्कड खेलने,का जी होता है। परियों के लोक किस्सा क्या सुना दिया, अब उन सपनों में खोने का जी करता है। पकडो इन दोनों बाहें,ये झूला मिल गया, अब सावन घटा में पेंग भरने,मन होता है। ।2। पापा,मैं कुछ सालों में बडी हो जाऊँगी, जीवन में आता परिवर्तन ये समझाऊॅगी, पहले गुड्डी थी चिडिया हूॅ औ बनूँगी परी, तुम्हारे सपनों की,उन्हे लेके उड जाऊँगी। छूटा सब,गुड्डा, चिरैया और झूले का पेंग, कैसे भूलूँ, बस याद करूॅगी,याद आउॅगी। ।3। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"नया अंदाज"(कविता)

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 अब के वे मूल्य नहीं रहे , जीवन मूल्य तो था, पर ,उनके जीने का वह अंदाज तो अलग था। पक्के मकान भले न थे,खपरैल का घर तो था सो संग रहकर,सहन का अंदाज तो अलग था। कोई मुफलिस गुजरा है,संजीवन बनना तो था, वह नजरअंदाज न हो,वो अंदाज भी अलग था। कठिन दौर रहा हो,पर वह जीवन तो सरल था, सुख दुख साथ सहने का अंदाज वो अलग था। ।1। अब मूल्य है पर ,वह सब जीवन मूल्य बदल गये,  उन फ्लैट के दीवारों में जीने का अंदाज आ गया, गाँव की माटी साथ चौपाल चबूतरे गायब हो गये, खोये मैदान ,जिम में मशीनों का अंदाज आ गया। नजरअंदाज करना,बना है आधुनिकता का फैशन, सो  खून में  विकार ही ,खून का अंदाज आ गया। सब दिशाओं से आते कुटुंब के खास आयोजन में, अब पति पत्नी में फैमिली का नव अंदाज आ गया। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"उच्छ्वास: मिलन के संताप का"(कविता)

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इन झील सी ऑखों में आँसुओं भावनाओं से, कंपन में झूलती लहरों का गुबार जब भी रहा, तभी इस पूनो के चाॅद सी लगने वाली मुख की, हँसी पे बलखाती गेसुओं के दर्द में उलझा रहा। ।1। बडी देर तक डर समाया रहा मुझमें जाने कयूॅ, पिय मिलन में संताप का उच्छ्वास गिनता रहा, पता नहीं वो दिल से उठी हूक थी,पर थी बेचैन, यादों की चादर पे नींद के बहाने मैं जागता रहा। ।2। उफ भी मयस्सर न हुआ ,सोच इस बेहाली पर तुम क्या बीती होगी,यही अहसास करता रहा। पर कपोलों पर, जरा भी शिकन न दिखी मुझे, तुम्हारी इस जादूगिरी पर बस यूँ दाद देता रहा। ।3। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"मन्नत का धागा: दुखियारी का"(कविता)

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सोचो तुम्हारी सलामती के लिए, किस दर पर मत्था न टेका होगा। उस दुखियारी माँ ने ममता में आ, जाने कैसे दुआओं को मांगा होगा। अशक्त होने पर भी गोद में ढोकर, आरजू में अश्रुओं को बहाया होंगा। ।1। इस धरा पे वही एक सजीव देवी है, खुश करके तुम्हें वरदान पाना होगा। पता ही नहीं,कितने दरख्तों में दिये, चौतरफा मन्नत का धागा बाॅधा होगा। मानो न मानो सिरमौर बनाने में वही, अपना तन,मन,सर्वस्व लुटाया होगा। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"मंदिर :सत्यं, शिवं,सुन्दरम् का"(कविता)

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 ए मन! सितारों की दुनियाँ में चल तो सही,  वहाँ पे किसी तरह का कोई बन्धन नहीं है। सजा है,लगता किसी मेहमान के स्वागत में, बहारों के रागिनी गान हैं,कोई साज नहीं है। न कोई बुत है,किसी की बुतपरस्ती भी नहीं, कोई तो है,उसके भव्यता का जवाब नहीं है। ।1।   यहाँ की तरह वहाँ जाति धर्म का भेद नहीँ, मंदिर के उदारता का कोई मिशाल नहीं है। सभी को बुलाती महामहिम के स्वागत को, वहाँ  नियंत्रण,निमंत्रण का उपकार नहीं है। सत्यं,शिवं,सुन्दरम् से होता चिर आलोकित, अलौकिकता देखने का कोई अंदाज नहीं है। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"खोकर , दुख भूल जा"(कविता)

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जब बर्फीले वादियों में खोकर हम औ तुम, देवदार के जंगलों में, चेहरे दीदार करते थे। दिल कहता है भूल जा,उस स्याही रात को,  जिसे खुले ऑगन में तन्हा बिताया करते थे। चाॅद अपनी मुस्कुराहट से वो दर्द उभार देता जब फैली रश्मियों से ये ऑखे चार  करते थे। । 1। सपनों के उडनखटोले से उडते हम औ तुम, मंद ठंड में परदार की उडान दीदार करते थे। दिल करता है भूल जा,वो कल कल वाद को, सहारे जिसके उन सासों के लम्हें जोड लेते थे। जिनमें उतारा था कराहटों से सजी वो दुनियाँ, अपना भी है कोई इसमें ये सोच दर्द पी लेते थे। । 2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"अब ये क्यूँ होता है?(कविता)

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 सूरज पहले  जितनी गर्मी देता था, वो अभी भी उतनी ही गर्मी देता है, अब धरा, क्यूँ इतनी तपित होती है, कभी सोचा है?अब ये क्यूॅ होता है। । 1। पर्वत से नदियाँ पहले भी बहतीं थी, अब भी वैसे ही लहरा कर बहती है, गर्मी में सूखी, वर्षा में बाढ लाती है। कभी सोचा है? अब ये क्यूॅ होता है। । 2। पहले खेत में कम पैदावार होता था, तब तनमन से स्वस्थ रहा करता था, अब सुपोषित हो रुग्ण रहा करता है, कभी सोचा है ? अब ये क्यूँ होता है। । 3। सोचो ! दिल दिमाग लगा कर सोचो, बिमार सोच से उबरने की कुछ सोचो, लालच से, तो कहीँ वर्जनायें टूट रहीं,  विकार ,मन मस्तिष्क दूषित कर रहीं। । 4। खुदगर्जी में पैरों में कुल्हाडी मारा है, कुविचारों से भरा ,ये समाज सारा है, नियति चल कर,चुपचाप कह देती है, न बदले तो खतरा है,यह संकेत देती है। । 5। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता(अवकाश प्राप्त प्रवक्ता गणित ) ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"प्रारब्धों के पाषाण का बोझ"(कविता)

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अपनी बस्ती में जने पुतले जब पाषाण बन गएँ, तब बूढे जीवन रथ से प्रारब्धों में ढोना पडता है। भावनाहीन दिल ले खुद सोच से निष्प्राण हो गए , तो जर्जर तन को स्वेद की धारा सा रोना पडता है। ।1। जिनके सुख हेतु संघर्षों की नई कहानी लिख दी, मद्धम कदमों से उन छालों को समझाना पडता है। वे खुश रहें,अब न रही है, उनसे न रुसवा शिकवा , मुझे खुद्दारी से जीने का यह राग जमाना पडता है। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता(अवकाश प्राप्त प्रवक्ता गणित ) ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"संवेदना ओढे नकली चेहरे"(कविता)

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लोगों के छिपे असली चेहरे से, पता नहीं चलता दिल की बात, मतलब पर बनाते मासूम चेहरा, उल्लू सीधा होते ही करते घात। चेहरे पर नकली चेहरे लगाते है, पेट में घुसकर आघात लगाते है, बाहरी लोगों से हम कैसे लड लें, जीतना कठिन है दिल के नातों से। रिश्तों में चाहे जज्बात दिखला ले भावना के ज्वार में कैसे नहला लें, दिल के धडकन को वे रौंद डालेंगे, शमशान में लाकर राख कर डालेंगे।        अब जिसे दिल का टुकड़ा मानो, समर्पित कर दो अपना दिन रात, भूले पलभर में, जो दिया सौगात, संवेदनाओं पर, वही लगाते घात। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता(अवकाश प्राप्त प्रवक्ता गणित ) ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"उचछवास: मिलन के संताप का"(कविता)

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इन झील सी ऑखों में आँसुओं भावनाओं से, कंपन में झूलती लहरों का गुबार जब भी रहा, तभी इस पूनो के चाॅद सी लगने वाली मुख की, हँसी पे बलखाती गेसुओं के दर्द में उलझा रहा। । 1। बडी देर तक डर समाया रहा मुझमें जाने कयूॅ, पिय मिलन में संताप का उच्छ्वास गिनता रहा, पता नहीं वो दिल से उठी हूक थी,पर थी बेचैन, यादों की चादर पे नींद के बहाने मैं जागता रहा। । 2। उफ भी मयस्सर न हुआ ,सोच इस बेहाली पर तुम क्या बीती होगी,यही अहसास करता रहा। पर कपोलों पर, जरा भी शिकन न दिखी मुझे, तुम्हारी इस जादूगिरी पर बस यूॅ दाद देता रहा। । 3। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता(अवकाश प्राप्त प्रवक्ता गणित ) ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"रंग जो ऐसा चढा"(कविता)

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मतवाले हुडदंग में मस्त मतंग झूमें, मौन मृदंग गूंजे,डूब भंग के उमंग में, वसंत के सुगंध में,तमाल के गंध में, आम के बौर हो गए महुए के रंग में, धरा के धूल पर भस्म का नशा चढा,  अंग हुए अनंग में,रंग जो ऐसा चढा। ।1। टेसू के फूल अब कुछ ऐसे लाल हुए, जैसे गुलाल से, शर्मीली के गाल हुए, कोयल के कूक से, उठी दिल में हूक, ऑसू भरी अंखियाॅ कहें होकर बिद्रूप, अर्धंगी के गंग तरंग में, यों जोश चढा, भूल गये स्वयं को,रंग जो ऐसा चढा। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता(अवकाश प्राप्त प्रवक्ता गणित ) ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"पर ऐसा भी कहीं होता है"(कविता)

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 ( छोटी गौरेया के उदगार-पंख बंधे होने के कारण) मेरे शरीर को पंखो सहित बाँध कर, पैरों को धागे के जाल में उलझाकर, ऊॅचे मुडेर से जुडे काठ पर बैठाकर, मगन हो रहे हमारे हर प्रतिक्रिया पर, मेरा मन भी आसमां छूने को होता है, अरे मानव !पर ऐसा भी कहीं होता है। । 1। खुद बुद्धि से उस उँचाई पे पहुंचना है, यह पूरी धरा लघु देखने की तमन्ना है, यही अरमाँ से वो उडान का सपना है स्वयं के रोशनी से सूर्य सा दमकना है, परों को बाँध के उडान परीक्षा लेता है, अरे मानव! पर ऐसा भी कहीं होता है। । 2। निर्बंध करदो तो सब जज्बात देखोगे, उडूंगी इतना वो पूरा आकाश देखोगे, तू नहीं करेगा,तो भी हार नहीं मानूॅगी, खुद कौशल से सब बंध तोड डालूंगी, पर बाॅध कौन इस तरह परीक्षा लेता है, अरे मानव! पर ऐसा भी कहीं होता है। । 3। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता(अवकाश प्राप्त प्रवक्ता गणित ) ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"खुश है नवांकुर"(कविता)

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तुमको भोर का तारा कहकर बुलाऊॅ, या फिर दीप कहूँ, दिन के ढलने का। ये खिलखिलाती रात, सोच में हो गई , या वक्त आ रहा, रजनी के सजने का। । 1। भ्रम में हूँ देख ये कि रवि शशि से है या, भानु अस्तांचल में राज है मधुराज का। या जुटी है निशा तारों संग, दीपदान में, खुश है नवांकुर, आदर में दीपराज का। । 2। सजनी इस तर्जनी से ये बंद मत करना, ये वक्त नहीं अब होठों के चुप रहने का। पंखुडी सोच रही, है कुछ खिलखिलाना, बस दशा को पढना,दिन के तापमान का। । 3। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता(अवकाश प्राप्त प्रवक्ता गणित ) ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"लाॅकडाउन :किसका दुप्रभाव"(लघुकथा)

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पता नहीं कैसे, पास के जंगल से भागता चीता चिड़ियाघर में  आ गया,लगता है कि ढीले बाड में कहीं जगह पा गया होगा। वहाँ उसे चिड़ियाघर के बाड में रखे एक भालू से मुलाकात हो गई । भालू ने चीते से कहा, भाई तुम जंगल छोडकर यहाँ कैसे आ गये? चीते ने कहा,क्या बताऊँ ? भाई, जंगल में पहले जैसे कुछ नहीं बचा। घने घने जंगल वीरान हो गये है,पेड नहीं होने से हमारे निवास-स्थान खत्म हो गये,पानी के स्रोत सूख गये।जंगल में अवैध शिकार होने से हम लोगों की खाद्य श्रंखला पर बुरा असर हो रहा,कहने का मतलब गाय,बैल,भैंस,बकरी,खरगोश और हिरन इत्यादि हमारे जो भोजन हुआ करते थे,लालची मानव अपने जिह्वा स्वाद के लिए इनको भी मारकर खाने लगा है,इससे पर्यावरण तंत्र पर विपरीत असर तो हुआ ही,साथ ही साथ खुद भी अनेकों भयंकर बीमारियों का शिकार हो गया। देखो न, पता नहीं कहाँ से, कोरोना का वायरस आ गया,इसने तो ऐसा कहर ढाया कि पूछो मत।       इस पर भालू बोला, अरे भाई यह सब उसी बुरे कर्मो का परिणाम है,हम लोगों का प्राकृतिक निवास, भोजन और पानी के स्रोत को छीना ही, हमारे खाने का निवाला भी छीन लिया।      बगल के बाडे में सियार इन दोनों की बात सुनकर बोला,अर

"होता है: सुत भी पराया धन"

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 मेरे सुत,तेरे शुभ आगमन से पहले, भामिनियों के नूपुर बजे थे रुपहले, पता ही न चला,जन्म से अभी तक,  खुशियों के हिसाब लगाते जब तक। । 1। बसे उस शहर सूना करके मेरा गाँव, सूने हुए खिलौने और नीम की छाँव,  मुझे लगता हैं,तनय भी पराये होते हैं, सूनी ऑखों के ऑंसू भी खारे होते हैं । । 2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता(अवकाश प्राप्त प्रवक्ता गणित ) ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"अतीत में खोई नवविवाहिता (पति से कथन)"

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हमने माथे पर यह बिंदी लगाई,तेरे नाम की, कभी नयनों में आये थे,मेरे सपनों की तरह। सालिगराम सा पूजा था हमारे मन-मंदिर ने,  अब मेरे जीवन नैया में हो,पतवार की तरह। । 1। शिथिल कर दिये अतीत के स्नेह बंधनों को, बस गये हो तुम्ही अब एक परमेश्वर की तरह, सजने के लिए बचा कुछ भी न पास अब मेरे, खुद को लुटाया तुम पे एक अलंकार की तरह। । 2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता(अवकाश प्राप्त प्रवक्ता गणित ) ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।

"होगी जरूर"(कविता)

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आयी होगी तुझे याद जब भी मेरी, तेरी तन्हाई तो महकी होगी जरूर। आह तक न की,जाने क्या बात थी, कोई मजबूरी तो तेरी रही है जरूर। ।1। आज अरसों में मिलने आई हो तुम, यह वक्त है,कर लेते वे शिकवे गिले। अब कितने भी तूफां हों मेरे राह में, कसम से,कभी न जुदा होने जरूर। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता(अवकाश प्राप्त प्रवक्ता गणित ) ओम प्रकाश गुप्ता जी की रचनाये अन्तरा शब्दशक्ति पर पढ़ने के लिये यहाँ  Click   करें ।