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"जीवन के बदलते रंग"(लेख)

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 जीवन के बदलते रंग आज विज्ञान बहुत ऊंचाई की तरफ बढ़ता चला जा रहा है और मानवता पाताल में  धसती चली जा रही है। सब कहते हैं हम बहुत उन्नति कर रहे हैं पर क्या हम वास्तव में उन्नति कर रहे हैं ।यह चिंतन का विषय है ।प्रकृति के नियम नियमों के विपरीत जाकर हमने उन्नति नहीं की ,अवनति की है ।भगवान की बनाई इस धरती पर प्रभु ने सारी सृष्टि को बहुत ही नियम वध तरीके से स्थापित किया है पर हमने विज्ञान के नाम पर उत्पात मचा मचा कर सृष्टि को तहस-नहस कर खुद को आधुनिकता के  अंधेरे कुएं में धकेल दिया है।   पहले सूर्योदय की पहली किरण के साथ सुबह होती थी ।आसमान में फैली लाली के साथ सूर्य की पहली किरण धरती पर पड़ती थी । सब जाग उठते थे और वह सुहानी सी सुबह और उसकी सुहानी सी धूप,तमाम विटामिनों से भरपूर होती थी ।सुबह की शीतल हवा तन मन की तमाम परेशानियों को अपने साथ उड़ा ले जाती थी । छितिज पर फैली लालिमा में गजब की ताजगी होती है  ।चिड़ियों की चहचहाहट, पेड़ के पत्तों की सरसराहट, फूलों की खुशबू पूरे वातावरण को सुगंधित ओर संगीत मय  बनाती है । इनमें हमारे शरीर के रोम रोम को निरोग करने की असीम शक्ति है। दिन भर के मेहनत क