"सर्द ऋतु"(कविता)
सर्द हवाओं का डेरा था।। सामने घनघोर घनेरा था।। मैं कांपता हुआ खड़ा था।। एक बल्ब की रोशनी से ढका था।। जैसे ये ठंड मुझे, जमा देने वाला था।। इस रात में मै बे सहारा था ।। वो भयानक ऐसा मंजर था।। सर्द ऋतु का वो मौसम था।। एक हवेली, जो दरवाजा बंद था।। मगर शायद उसमे कोई न था।। चारों तरफ सिर्फ अंधेरा था ।। बस दरवाजे पे वो बल्ब जल रहा था।। उसी की तरफ मैं बढ़ रहा था ।। मैं बुढा लाचार एक पिता था ।। मेरे अपनो का ही मुझपर ये कहर था।। मेरा ही घर, मेरे लिए घर न था।। एक उम्मीद की किरण वो था।। वृद्धा आश्रम के सामने मैं खड़ा था।। कंप कपाते होंठो से वो बोला था।। पिछली सर्द ऋतु में मैं यहाँ खड़ा था।। ये जुबाँ वालो का शहर था ।। जहाँ दर्द में बहुत सर्द ऋतु था ।। Written by कवि महराज शैलेश