नदी
रेत का मंजर बड़ा है, दूर तक कोहरा घना है। जिंदगी की चाह में, हम तो खडे हैं राह में। पेड पौधे फूल पत्ती, दूर तक दिखते नहीं। कमलदल या कुमुदिनी, साथ में खिलते नहीं। कल -कल करती थीं जो लहरें, घाट वह सूना पड़ा है। लहलहाते खेत थे जो, आज वो बंजर पड़ा है। तैरती थी जो नव यौवन, खेलती अठखेलियाँ। खोजती हैं आज उसको, साथ की सहेलियाँ। जीवन धारा थीं जो नदियाँ, उनमें अब कूडा पड़ा है। अम्रत रस की धार ताके, गाँव में बूढा खड़ा है। Written by सुरेश कुमार 'राजा'