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"युग पुरुष"(कविता)

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हर युग मे  इक युग पुरुष  जन्म लेता है  जो हवाओ की दिशा बदल देता है  सत्ता के मायने बदल देता है  समय की गति बदल देता है हर तूफां का रास्ता बदल देता है  ओर सारे संसार को , नई रोशनी , नए नियम नए   सिद्धांत , नए ज़िन्दगी के  मायने देता है   वो भी संघर्षों में पैदा होता है  और संघर्षों से जूझता  है। जब देवता ही नही बच पाते वो भी  नित नए नए संघर्षों से  सामना करते हुए  आगे बढ़ता जाता है, और नए कीर्तिमान रचता है  अपनी विजय के, मगर वो कभी   हार नहीं मानता और  युगपुरुष बनकर दुनिया के सामने  नए सूरज की तरह उदय होता है Written by  कमल  राठौर साहिल

"जंग जारी है"(कविता)

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 जंग जारी है स्वयं को ज़िंदा रखने की अपनी साँसों को जकड़ के रखने की। साँसों का दामन  छूट ना जाए खुद को ज़िंदा रखने की जंग जारी है। जंग जारी है दो जून  रोटी की सारे शहर में पसरा सन्नाटा । चूल्हों पे है , मातम छाया पेट की आग बुझाने जंग जारी है। जंग जारी है इंसानियत को जिंदा रखने  मानव सभ्यता को बचाने की। सब की रगों में दौड़ रहा एक ही खून खून के रिश्ते बचाने जंग जारी है। जंग जारी है इस महामारी से जीतने की हम मनु की संताने इस धरा पर। एक जुट होकर लडेंगे हम अपने हौसलों से कोरोना को हराने की। जंग जारी है खुद से , खुद की विश्वास की लो बुझने न देंगे। हम जीते हैं सदा , हम जीतेंगे कोरोना को हरा , हम फतेह करेंगे। जंग जारी है , जंग जारी रहेगी जब तक हम जीत नही जाते। Written by  कमल  राठौर साहिल

"वो परिंदे"(कविता)

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वो  परिंदे जो गांव की मिट्टी की  खुशबू को छोड़  गांव की आबो हवा को छोड़  शहर की तरफ उड़ गए थे  सपनों के शहर में अपने सपनों को साकार करने अपनों से दूर , दो जून की रोटी और  सपनों का बोझ ढोते  जिये जा रहे थे। वो पर कटे परिंदे , अब वापस लौट रहे हैं।  अपने गांव की ओर जब शहर की हवाओं में  जहर घुल गया। अपने गांव की  माटी की खुशबू के लिए  यह परिंदे वापस लौट रहे हैं। अपने सपनों को लहूलुहान कर  इस शहर को छोड़  वापस अपने गांव लौट रहे। Written by  कमल  राठौर साहिल

"सबके राम"(कविता)

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 मेरे राम , तेरे राम  सबके राम , कण कण में राम घट घट में राम समाया है खुद के अंदर झांक ले बंदे तुझमे राम समाया है जीवन की आपाधापी में  माया माया करता बंदा अपने अंदर ना झांके  तुमने राम भुलाया है राम नाम ही पार लगावे जीवन का मर्म समझाया है मर्यादा में रहकर  पुत्र धर्म निभाया है  दुष्टों का संहार किया सीता का मान बढ़ाया है मेरे राम , तेरे राम  सब में राम समाया है। Written by  कमल  राठौर साहिल

"कान"(कविता)

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 घर से निकलो तो  कान बंद करके निकलो कान में रुई ठूस कर निकलो सारे प्रपंचो का आधार  खुले कान ही है कोई बातों का जहर  कानों में घोलकर तुम्हारी नींद  उड़ा देता है कभी अफवाहों की हवा  तुम्हारे कानों में घुसकर  हलचल मचा देती है। तुम जानते हो  दीवारों के भी कान होते हैं जब तुम स्वयं दीवारों पर  अपने कान लगाते हो भूचाल आ जाता है तुम स्वयं कानों की बातें सुनकर  विचलित हो जाते हो अपने कानों पर तुम नकेल नहीं कस पाते अपने कानों पर लगाम लगाओ अपने कानों पर बंधन रखो घर से जब भी निकलो  कानों में रुई ठूंस कर निकलो Written by  कमल  राठौर साहिल

"तेरा साथ"(कविता)

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 18 अप्रैल शादी की वर्षगांठ के उपलक्ष में विशेष  हम आदम - हब्बा नहीं फिर भी एक दूजे के बिना अधूरे हैं। ना हम लैला - मजनू  ना हम हीर - रांझा ना हम रोमियो - जूलियट हम पति-पत्नी है। एक साइकिल के  दो पहियों की तरह  एक ही धुरी पर  एक साथ घूमते हैं। सुख - दुख में साथ रहते हैं एक दूजे की भावनाओं को समझते हैं। जिंदगी की धूप छांव में  साथ चलते हैं। कुछ सालों पहले  आज ही के दिन  हम परिणय सूत्र में बंधे। आज का दिन  हम दोनों के लिए खास है। मुझे स्मृतियों में  अपनी पहली मुलाकात  आज भी याद है। और भी अनगिनत यादें  मेरी स्मृतियों में  हमेशा जिंदा रहती है। जब कुछ पलों के लिए  तुम मुझसे दूर होती हो। अपनी यादों के साथ  साए की तरह  सदा मेरे साथ रहती हो। Written by  कमल  राठौर साहिल

"भीड़"(कविता)

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भीड़  का नाम नहीं होता भीड़  की संख्या होती है भीड़ होती है  आम आदमी की  बेरोजगारों की  घर से बेदखल किए गए नालायको की अनपढ़ों की  , गवारो की भीड़ में से जब कोई मरता है  तो उस उसका कोई   नाम नहीं होता  सिर्फ संख्या होती  है चुनाव की रैलियों में  उपस्थित भीड़  नेताओं को आकर्षित करती है उनके भाषण देने की क्षमता में  और इजाफा हो जाता है  वह किराए से लाई गई  भीड़ को ही अपना वोट समझ  खुशी से पागल हो जाता है। राशन की भीड़ लाचार ,  असहाय होती है पेट की आग बुझाने के लिए  मजबूरी में उनको  भीड़ का हिस्सा बनना पड़ता है सिनेमा हॉल की भीड़ पैसे वालों की होती है जो अपने मनोरंजन के लिए अपनी संपत्ति को  विलासिता में खर्च करते हैं मंदिरों की भीड़ उन डरे हुए लोगों की होती है  जो अपने कर्मों से डर कर भगवान की शरण में पहुंच जाते हैं  इंसानों को नोच कर पत्थरों के समक्ष अपना प्रायश्चित करते हैं बाजार की भीड़ उन आम   इंसानों की होती है जो  जिंदगी की चक्की में पिसते हुए अपने परिवार का  पेट पालने के लिए कोल्हू के बैल की तरह  बस चलते जा रहे हैं उनका कोई वजूद नहीं होता  ना ही उसका कोई अस्तित्व होता है  भीड़ जीरो से

"मेरा सृजन"(कविता)

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मेरा सृजन , मेरे अल्फ़ाज़ मेरी रचना , मेरी सोच तुम्हारे मनोरंजन के लिए नही है । मेरी दुकान पे तुम्हे , हँसी का ठहाका नही मिलेगा। में लतीफ़ों का व्यापार  नही करता। मेरा सृजन बदलाव का है । मेरा सृजन मंथन का है । अगर मेरे अल्फाज़ो के  फूलों की महक , तुम्हे रोमांचित कर जाए  तो तुम्हारा स्वागत है । मेरे सृजन की माला पहन कर  अगर तुम बदलाव कर पाओ तो,   तुम्हारा स्वागत है । मेरा सृजन ना भूत का , ना  भविष्य के सुनहरे सपनो का, मैं तुम्हें मुंगेरीलाल के सपने भी  नहीं दिखा पाऊंगा,  ना शेखचिल्ली की तरह  सपनों में जीना सिखाऊंगा। मेरा सर्जन तो वर्तमान का है  आज के यथार्थ का है  सच तो यही है  जो आज है वही सत्य है Written by  कमल  राठौर साहिल

"मैं मंदिर नहीं जाता"(कविता)

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 मैं मंदिर नहीं जाता,  ऐसा नहीं कि  मेरी भगवान में  आस्था नहीं है।  ऐसा भी नहीं कि मैं नास्तिक हूं। मैं जाता हूं मलिन बस्ती में,  उदास चेहरो के पास, उनके पेटों के पास  जिनके अंदर भूख की  ज्वाला जल रही है।  उन नंगे बदनो के पास  जो ठंड से ठिठुर रहे हैं।  मुझे सुकून मिलता है  उनके चेहरों पर , जब मुस्कुराहट आती है।  मैं मंदिर नहीं जाता मुझे पत्थरों के बीच में,  सुकून नहीं मिलता। में  खुश रहता हूं  इंसानों के बीच में, मैं सतत प्रयास करता हूं  मेरे कर्म से किसी को  ठेस ना पहुंचे।  मैं मंदिर नहीं जाता  मुझे सुकून मिलता है  प्रकृति के बीच में, बच्चे की निश्चल मुस्कान में , मैं भगवान को मुस्कुराता देखता हूं। पसीने से लथपथ मजदूर में  मुझे भगवान दिखाई देते हैं। खेत में हल जोतते किसान में  मुझे भगवान प्रतीत होते हैं।  मैं मंदिर नहीं जाता मैं खुश हो जाता हूं  जब इंसान , इंसान के काम आता है  जब इंसान मूक जानवरों की   भाषा समझ लेता है।  मैं मंदिर नहीं जाता Written by  कमल  राठौर साहिल

"अश्वत्थामा : एक श्राप"(कविता)

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 द्वापर का वो अंतहीन श्राप, जिस की अग्नि में  सुलग रहा अश्वत्थामा, अपने प्रतिशोध की ज्वाला में  मुक्ति को आज भी  भटक रहा अश्वत्थामा! आज भी कंदराओ , निर्जन स्थलों पर  लहू से लथपथ, मुक्ति को चित्कार  कर रहा अश्वत्थामा ! अपने विवेक हीन निर्णय पर  पश्चाताप की अग्नि में  आज भी जल रहा अश्वथामा! कृष्ण का गीता उपदेश  भूला कर अतीत की स्मृतियों को,  याद कर रहा अश्वत्थामा!  काल के कपाल पर कालिख लगा आज भी दर-दर  भटक रहा अश्वत्थामा ! युग बदल गया , मगर   प्रतिशोध की ज्वाला में  आज भी तिल तिल  जल रहा अश्वत्थामा ! Written by  कमल  राठौर साहिल

"मोक्ष"(कविता)

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जन्म - मृत्यु के फेर में, गंगा घाट पे मोक्ष को तरसते वो सन्यासी जो ,   अनसुलझे जीवन को त्याग  मोक्ष प्राप्ति के लिए  निकल पड़े , उम्मीदों का  झोला टांके,  ललाट पर चंदन लगा , नाम मात्र के वस्त्र धारण कर हर हर गंगे का   उद्घोष , कतार में लगे हुए मोक्ष पाने को कुछ को तलाश उस निर्जन स्थान की जिस स्थान पर देह को त्याग,  आत्मा को मिल जाए मोक्ष Written by  कमल  राठौर साहिल

मेरी कवताएं

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सिसकती है , उबलती है  प्रतिशोध की अग्नि में  जलती भी है । मेरी   कविताएं बंदिशों से  मुक्त होने को तड़पती भी है।  वह प्रहार भी करती है हथौड़े की तरह मानस पटल पर, वह प्रयास भी करती है  चीर निंद्रा से जगाने का और धीरे-धीरे  चुप्पी साध लेती है।  वह हर बार , सुलगते लफ्जों के साथ  कागज को जलाती है।  हर बार पढ़ने वाले के  मन मानस को झकझोर देती है। और धीरे-धीरे  चुप्पी साध लेती है।  मगर हार नहीं मानती,  हर बार नई उम्मीदों के साथ  पैदा होती है  और मिट जाती है । Written by  कमल  राठौर साहिल

मासिक धर्म

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वो बारह तेरह साल की  अबोध बालिकाएं । गुड्डे गुड़ियों के खेल के साथ  अल्हड़ पन से गुजरती उनकी वो मासूम उम्र।  सामाजिक ताने-बाने  और प्रकृति के नियमों से  बे-खबर एक विध्वंस ज्वालामुखी  अपने अंदर समेटे जो कभी भी फट सकता है। वह नहीं जानती जिस दिन , जिस पल  वह ज्वालामुखी फटेगा सामाजिक धरातल पर अनदेखे , अनसुलझे  आडंबरो की चाशनी में  डूबे हुए नियम उम्र भर के लिए उसके लिए  बेड़ियां बन जाएगे। एक अप्रत्याशित घटना से  उसका सामना होगा उसका अबोध पन उसके चेहरे की मासूमियत लाल सुर्ख हो जाएगी। उस ज्वालामुखी के लावे को उम्र भर उसे ढोना होगा। अब वो  नाबालिग की   कतार से आगे बढ़कर बालिग की कतार में  आ खड़ी होगी। वह बारह तेरह साल की  अबोध बालिका स्त्री बन   सृष्टि के नियम के  अधीन हो जाएगी।  Written by  कमल  राठौर साहिल

"खाने खिलाने का तजुर्बा"(कविता)

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 एक नेता ,  दूसरे नेता के पास  दौड़ा दौड़ा आया  शरमाया - सकुचाया ओर  गला फाड़कर चिल्लाया । बेचारे पहले नेता को,  झपकी से जगाया । ओर बुदबुदाया ,  लो यह मिठाई खाओ  और बिन त्यौहार ही खुशियां मनाओ।  पहला नेता डर गया  उसकी इस हरकत से सहम गया  और चौक कर बोला  अरे भाई यह मीठा मुंह , क्यों करा रहे हो  क्या तुम्हारी कोई लॉटरी लग गई है  या किसी जनता का  खून चूस कर आ रहे हो।   अरे नहीं ,भाई लॉटरी तो  सरकार ने बंद करवा दी।  और मैं क्यों भला  खून चूसने लगा।  क्या मुझे जूस नहीं मिलता । बात कुछ यू है  हमारे राजनीतिक दल दल में , एक और भ्रष्टाचारी आ रहा है।  जो अपने आगमन का  ढोल बजा रहा है।  पहला नेता , मगर वह अभी अनाड़ी है  राजनीति में कच्चा खिलाड़ी है।  वह पागल है जो  देश में लगी दीमक को  मिठाई खिला रहा है  अरे नहीं वह तो  मझा हुआ इंसान हैं  इंसान के पीछे शैतान है  आज खिला रहा है  कल खा रहा होगा  यही तो उसकी चाल है  मिठाई को उसने बनाई ढाल है  अपने आगमन के साथ ही  उसने राजनीति का  पहला गुर सीख लिया  खाने खिलाने का तजुर्बा जान लिया । Written by  कमल  राठौर साहिल

"तेरा कर्म ही पार लगाएगा"(कविता)

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माटी का तन , माटी में मिल जाएगा  रे मनवा क्या सोचे ,  तेरा कर्म ही पार लगाएगा। काल रुका है , ना रुकेगा समय नीर बह जाएगा जीवन की  आपाधापी में कब तक  राम भुलाएगा  रे मनवा क्या सोचे  तेरा कर्म ही साथ निभाएगा जीवन है एक मुसाफिर सफर  यह कट जाएगा । माया माया करता तू , काया  संग ना जाएगा रे मनवा क्या सोचे  तेरा कर्म ही पार  लगाएगा। आती जाती सांसों का  सफर कब थम जाएगा चुन-चुन कर जोड़ी माया सब धरा यहां रह जाएगा रे मनवा क्या सोचे  तेरा कर्म ही पार लगाएगा Written by  कमल  राठौर साहिल

"काल चक्र"(कविता)

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इंसान पूजे जाते हैं  क्योंकि वह रहस्यो से भरे हुए हैं । जिस दिन सारे रहस्य  खत्म हो जाएंगे , उस दिन से एक  नई खोज शुरू होगी। प्रकृति के रहस्य  उजागर हो जाएंगे। पेड़ों का बढ़ना , झरने का गिरना , सागर की गहराई ,  आसमा की ऊंचाई ,  ब्रह्मांड का रहस्य, सृष्टि का नियम, अप्रत्याशित बदलाव आएगा। जिस दिन सारे रहस्य  उजागर हो जाएंगे। स्त्री का मन , ऋषियों का मोन , खुली किताब बन जाएंगे। फिर से सृष्टि का जन्म होगा। फिर से अंकुर फुटेंगे , फिर  मानव देव कहलाएगा। काल का चक्र  ना रुका है  ना रुकेगा कभी काल चलता जाएगा। फिर से इतिहास  अपने आपको दोहराएगा। फिर से वेद , उपनिषद  महाकाव्य लिखे जाएंगे। एक बार फिर हाहाकार मचेगा। एक बार फिर,  अवतारों का दौर चालू होगा। फिर से नरसंहार होगा, एक बार फिर  महाभारत रची जाएगी। फिर से दस सिर वाला  शिव भक्त रावण पैदा होगा । फिर से सीता का हरण होगा  एक बार फिर विष्णु अवतारी  राम इस धरती पे अवतार लेंगे। फिर से गद्दी के लिए  पिता का कत्ल होगा। फिर से भाई ,भाई  गद्दी के लिए  एक दूसरे का प्यासा होगा। फिर से प्रेम कहानियां  दोहराई जाएगी। फिर से कृष्ण सुदामा की  दोस्ती मिसाल बने

"हादसा"(कविता)

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हादसे का शिकार ,  वह शख्स तड़पता रहा सड़क पे  अनगिनत खामोश निगाहें  निहारती रही मोबाइल के शटर से !  वह शक्स अभी मरा नहीं उसकी उम्मीदों की साँसे चल रही है  उसके विस्वास ने  अभी दम तोड़ा नही उम्मीद थी सेकड़ो की भीड़ में  कोई फरिश्ता बन बचा लेगा कोई तो वक़्त पे  अस्पताल पहुँचा देगा मगर धीरे धीरे  उसका विश्वास उखड़ने लगा इंसान का इंसान के प्रति  देख रवैया , सांसों का कारवा  थमने लगा !  लोगों  के हुजूम में  वो सिर्फ   तमाशा मात्र था  उसका अचेतन मन  दो नावों की सवारी कर रहा था  काश कोई मुझे बचा ले! मेरे बाद मेरे , घर परिवार का क्या होगा!  और भीड़ के बीचो बीच उसने  साँस का दामन छोड़ दिया पहले वह नहीं मरा, पहले मूक बने तमाशबीनो  की  इंसानियत मरी! ये मंजर आम होता है इंसानों के बीच  सरे - बाजार तमाशा खास होता है अब यह तमाशा बंद होना चाहिए इंसान को इंसान की तरह  पेश आना चाहिए! हर शहर हादसों का शहर  बनता जा रहा  इन हादसों पर  कभी तो इंसानियत का मरहम  लगना चाहिए  अब यह तमाशा बंद होना चाहिए! Written by  कमल  राठौर साहिल

"मैं शिलालेख"(कविता)

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 मैं वह शिलालेख हूं जिसे थोड़ा-थोड़ा  हर कोई तोड़ता है। वो मुझको तोड़कर  बिखेर देना चाहते है। वो मुझे जर्रा जर्रा कर  मरुभूमि में मिला देना चाहते हैं। वो सवाल उठाते हैं । मेरे वजूद , मेरे अस्तित्व पर वह बर्दाश्त नहीं कर पाते मेरे गगन चूमते प्रतिबिंब को  वह अनगिनत प्रहार करते हैं। मुझको पहाड़ से,  कंकर बनाने के लिए  वो पूरी ताकत लगाते हैं।  मुझको मिटाने के लिए  मैं खामोश सा उनको देखता रहता हूं। इसी खामोशी में  कुछ फरिश्ते आते हैं । मुझको तराशने के लिए, वह जौहरी बन मुझको तराशते और मैं खामोश  सा  खड़ा पाषाण , टूट कर भी  और निखर जाता । मैं शिलालेख बन हर परिवर्तन को स्वीकार करता। Written by  कमल  राठौर साहिल

"उठो राम के वंशज"(कविता)

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उठो राम के वंशज,  तुमको देश पुकार रहा । जयचंदो की संतानों से  थर थर देश कांप रहा।  कल्कि का अवतार धर  युगपुरुष तुमको पुकार रहा।  एक अकेला मोदी,  शेर की  तरह दहाड़ रहा।  महापुरुषों के बलिदानो का  कुछ तो अभिमान करो । वीर शहीदों के खून का  ना तुम अपमान करो । उठो राम के वंशज तुमको देश पुकार रहा।   बहुत झगड़े मजहब पर  धर्म को ना तुम बदनाम करो।  सबका मालिक एक है मानव का तुम सम्मान करो।  ऋषियों की तुम संतान हो  खुद पर तुम अभिमान करो।  संकट जो आए देश पर  मिलकर तुम प्रतिकार करो। उठो राम के वंशज  तुमको देश पुकार रहा Written by  कमल  राठौर साहिल