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"दास्तान-ए-इश्क" भाग-1(कविता)

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उठाया हूँ फिर से कलम अपने जज्बात लिख रहा हूँ। हाँ मैं फिर से बेवफा सनम की औकात लिख रहा हूँ।। पहली बार देखा उसे, कुछ अजीब से आहट हुई। बोलने का दिल किया लेकिन, दिल मे घबड़ाहट हुई।। हसीनाएं बहुत थी अगल बगल, लेकिन वो कुछ खास थी। बयां नही कर सकता शब्दो मे, कुछ ऐसी एहसास थी।। लेकर उसकी यादों को, दिल की बात लिख रहा हूँ। हाँ मैं फिर से बेवफा सनम की औकात लिख रहा हूँ।। फिर एक दिन नजरें मिली उससे, वो देख कर मुस्कुराई थी। आंखों में एक चमक लेकर, वो नजर झुका शरमाई थी।। दोस्त की शादी का माहौल था, खुशियों की वो रात थी। लूडो खेलने के बहाने, हो रही हमारी बात थी।। मुहब्बत की बढ़ी कहानी, यादगार वो रात लिख रहा हूँ। हाँ मैं फिर से बेवफा सनम की औकात लिख रहा हूँ।। नहीं पता क्यों, पर मैं अंदर से थर्राया था। जब पहली बार उसको, सीने से लगाया था।। महीने बीत गए, मुहब्बत की कस्ती यू हीं चलती रही। दिलों में प्यार की कलियां, तेजी से खिलती रही।। अब यहाँ से मैं कहानी का बदलते हालात लिख रहा हूँ। हाँ मैं फिर से बेवफा सनम की औकात लिख रहा हूं।। बात है उस दिन की, जब वो मिलने की इच्छा जताई थी। सुन कर जगमग हुई मेरी दुनिया, बांछे

"मां भारती"

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  उत्तर में पग हिमालय, पूरब में ब्रह्मा के पुत्र, पश्चिम में ऊंचा सरदार खड़ा, दक्षिण में सागर पांव पखारती, जय भारती, मां भारती, जय भारती, मां भारती । जब ! हुणो ने हुडदंग मचाया, यूनानो ने चूमी थी धरा, तब! गुप्त-मौर्या ने शस्त्र उठाया, लहू से लाल किया था धरती, जय भारती, मां भारती, जय भारती, मां भारती । अंग्रेजो ने उधम मचाया, पानी सर ऊपर आया, भगत-लक्ष्मी ने शीश चढ़ाया, सीना ताने खड़ा रहा अहिंसक-शांति, जय भारती, मां भारती, जय भारती, मां भारती । सिंधु-हुगली-नर्मदा-कावेरी का जल, वादियों से फूलो का हार, निच्छावर कर अपना संसार, स्वयं का बलिदान करू हे भारती, जय भारती, मां भारती, जय भारती, मां भारती । Written by #atsyogi  (16/02/2021)

"हताशा/उलझन"(कविता)

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तुम्हारी पलकें झुकी हुई हैं पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।  है कैसा गम जो तुम्हे सताये पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।।  चिल्लाये होंगे सब मिलके शायद चांद हुआ बहरा-बहरा।  है जुगनू फिर भी आस जगाये पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।।  नेमतें तुम कितनी कमा लो चार दिन की है जिन्दगानी।  है खाली जाना समय बताये पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।।  फूल गुलाबां सजे हैं गुलशन पेड़ बबूलां भी उगते सहरा।  है कैसा मंजर मन में बसाये पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।।  जानता है तू भली तरह से तेरा रहनुमा तुझे लूट लेगा।  है कैसा भय फिर तुझे डराये पता नहीं क्यूं उदास हो तुम।।  🙏संतोष ही सबसे बड़ा धन है, वही सुख है 🙏 Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"मन के तार"(कविता)

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छेड़ो मत मन के तारों को  कोई राग निकल आयेगा ॥  सुबह हो गयी शाम हो गयी  चाहत भी अंजान हो गयी  सब कुछ अब तो सुख चुका है  तबियत भी बेईमान हो गयी  झिलमिल आँखो का आंसू भी  पानी बन कर निकल आयेगा ॥ सपने तो सपने होते हैं  सपने कब अपने होते हैं  बंद है मुट्ठी तबतक मोती  खुलने पर कितने होते हैं  पाँव हैं लंबे छोटी चादर  फटकर पाँव निकल आयेगा ॥ सावन में आती हरियाली  पतझड़ में सूखी है डाली  बासंती मधुमास देखकर  झूमि रही कोयल मतवाली  आंगन फूट रहा है यौवन ,  बरबस फाग निकल आयेगा ॥ सुख -दुःख आँख मिचौली खेले  धूप -छांव भी  गठरी खोले  सच्चा क्या है क्या है झूठा  दोनो एक तराजू तोले हानि-लाभ का जीवन -लेखा ,  इक दिन सही निकल आयेगा ॥ Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"एतबार"(कविता)

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हर  लम्हें   में   खुद   को  मारा   करतें   है जब  कभी  अकेले  में तुम्हें  याद  करतें है   मिलने  की ख़ुशी  बात  करनें  की  हसरतें लिएँ आज भी अपना वक़्त बर्बाद करतें है तुम्हे   क्या   पता   मोहब्बत   क्या   चीज़  तुम्हारे  वादों पर अब भी एतबार  करतें है बेजुबान  दिल को अंधेरे में  रख  कर सच  की बजाय  झूठ पे झूठ हम बोला करतें है तुम्हें  फुर्सत  कहा  हमारा हाल  पूछने की अब तो  हम  मौत  का  इंतज़ार  करतें  है Written by  नीक राजपूत

"किताब मेरी दोस्त"(कविता)

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किताब  है  मेरी  सबसे  अच्छी   दोस्त   और  मेरे  जीवन  की  रौशनी  किताब ने जीना  सीखाया  किताब  ने बोलना   सिखाया मेरे सभी  सवालों का जवाब है  विचारों  के   युद्ध  मे  सबसे   बड़ा   अस्त्र है किताब एक अनमोल उपहार  है  किताब  जो  हमें  एकांत  समय में   हमारा   साथ  देती  है  खुद को  बोझ  बनने से बचाती है  किताब  एक ऐसी    यात्रा है जिस पथ पर बिना  पाँव रखें चाहा सफर  कर सकतें है  किताब है   जीवन की सही पेहचान इसका मूल्य रत्नों, खरा  सोना  से  भी  अधिक है   क्योंकि   किताब    अंतःकरण    को  उज्ज्वल  करतीं   है  किताब  हमारी   सोच का  नज़रिया   बदल  सकती है  किताब  से  बढ़कर  वफादार   दोस्त    दुनिया में और कोई  नही किताबों के बिना जीवन  जैसे  बिन आत्मा शरीर   किताब जीवन का आधार है में लोगों से अधिक किताबों से प्यार करता हूँ Written by  नीक राजपूत

"सँगीत"(कविता)

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 सँगीत  हर  दुःख  का ईलाज़  सँगीत  हर   मर्ज़   की    दवा  सँगीत  हर दिल  की आवाज़ सँगीत  जीवन     का     अंश  सँगीत  एक   अच्छा     दोस्त  सँगीत   सफऱ     का   सहारा सँगीत  दुनिया  का   खजाना सँगीत  दिल बेहलाने की रीत सँगीत  शब्दों    का     सँसार  सँगीत  देश     की    संस्कृति  सँगीत  एक अनोखी  साधना  सँगीत   सकारात्मक    ऊर्जा Written by  नीक राजपूत

"सबुका पियारु"

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गिरवी मकानु केउकै केउकै मचानु पै चाकी  बण्डी म छेदु इतनौउ बलुभै दिखायि झांकी  कितना अमीरु ब ऊ दिगम्बरु बना घूमैयि  तनि एकु सूत ऊपरि गरीबिउ कै रेखु बाकी उजरौउटी तनिके सांटा दरिदुरि भागु जाई  गदहा क एकु दाईं बनायि लेतिउ बापु-माई  कुकरेउ नाईं आपनु गरदनु हिलावतु रहिब्या  पीठी कै भारु सगरिउ कंखरी म जायि समाई सैलाबु आयि जाई हिमानी बरफु जौउ पिघलैयि  कितनौउ बंधायि राखौउ माटी कैयि बांधु टूटैयि  मोमु जौउ जलैयि तौउ वाजिब बा पिघलु जाई इकु बिया कतहूँ दबैयि पाथरि क फोरि निकरैयि आपनु गदेलु औउ फरिका सबुका पियारु लागैयि कमतरु लखायि जौउ केउ पौरुष वहीपैयि जागैयि   अपनिउ गली म कुकुरौउ बनिकैयि हौउ शेरू घूमतु फंसि जायि उहैयि कतहूँ भलु पुंछिया दबायि भागैयि चुइबैयि करी भुंइयां जौउ पाकि गवा आमु  ढूंढ़िबैयि करी गुंइयां जौउ जेबी रही छदामु  लाचारी भलु आवैयि अस्मतु बचायि राख्यो  खेल्या न टुक्की-टुंइयां कछू नाहीं सरैयि कामु  Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"इतिहास गवाह है"(कविता)

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मानव हीं मानव पर दोषारोपण मढ़ते आया है नफरत मित्रवत किस्से से  इतिहास गढ़ता आया है! है सर्वविदित इतिहास भूतकालीन कागज पर बड़े -बड़े योद्धा भिड़े सरहद-ए जमीं के दो गज पर !! कपटी -कपट से  विजय को पाए कुकृत्य कर्म और घृणा  फैलाये !! कितने बन बैठे बादशाह सतरंजी दाव आजमा कर प्रतिद्वंदी को किये पराजित तीर-ए घाव लगा कर !! प्रत्यक्ष है प्रमाण दिखता अजर-अमर कहानी में भीरू-सर्वनाश हुए दुश्चिंतन, नादानी में  आत्महत्या कर बैठे बाद--आत्मग्लानि में!! अतीत के पन्नों की चमक स्वर्णिम अक्षर-अक्षर अंकित कालजयी पद्चाप धमक भयभीत और सशंकित !! शूल भरे पथ पर अग्रसर भोर ,दोपहर ,साँझ ,निशा लहू से लथपथ घायल पग  लेकिन मनः जय की जिजीविषा!! कितनों ने भोगा  दंड कठोर कितनों ने भागा  शीघ्र रणछोड़ !! कितनों ने तोड़ा हिम्मत से  उद्देश्य -पथ के अवरोध  कितनों ने कुनीतियों का  जीवन-पर्यंत किया विरोध !!

"मोहलत"(कविता)

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ओ समय के परिंदे कुछ मोहलत दे दे हो सके तो मीत बनके कुछ नसीहत दे दे!! कुछ दबी हुई जज्बातें कुछ अनकही सी बातें मन कहता  कि बोलूं दिल कहता  ना बोलूं !! किसकी बातें सुनूँ मैं कौन सी राहें चुनूँ मैं एक तू ही सच्चा साथी पढ़ तू ही दिल की पाती! कुछ चाहती हूँ लिखना जो पढ़ने लायक हो कुछ चाहती हूं पढ़ना जो लिखने लायक हो !! गड़ाती हूँ नजर नितांत दोपहर दिख जाए कुछ ऐसा जो सीखने लायक हो!! अपने अवगुणों से हर रोज झगड़ती हूँ  बड़े गहनता से  अन्तर्मन में झाँकती हूँ आज हुआ क्या असर किस हद तक गए निखर कौन सी बुरी आदतें  अब छूटने लायक हो !! थमने की मोहलत दे  रूह-प्रवाह को क्षुधा-उदर रहित मन की चाह को !! ना उम्मीदी की बाहों में साया दे उम्मीद का तू पग-पग पर रोड़े राहों में हौसला दे जय हिंद का तू एक बार गले लगा ले  अपना मुझे बना ले तेरा होकर सदा रहूँगी कोई शिकवा नहीं करूंगी मत देना सीख बुरी की  सर झुकने लायक हो !! Written by  वीना उपाध्याय

"वक्त की हर शै गुलाम'(कविता)

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ज्यों हवाओं का रुख ,बदलता रहे पल पल, कभी उमस भरी होती वो कभी लगे शीतल, धूल भरी होती कभी वो ,कभी बहती निर्मल, लू के थपेडों से यूँ कभी बदन को करे घायल,  मिज़ाज के साथ जो चलते, होते वही सफल, दुखी होते वो कभी,खुद जिद में जाते निकल। ।1। ये वक्त भी बहुरुपिया सा बदले अपनी शकल, इंसाँ संग देता जो ये,कांटे भी बनते सरस फल, घूरे के दिन बदलते,ज्ञानी भी होते दिखे पागल, रंक भी हो जाते राजा बंदरों से सिंह हुए घायल, बसंत से रूठी खुशबू ,बरखा से हार गया बादल, समझदारी उसी में है,समय के साथ बहता चल। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला किरंदुल, दंतेवाड़ा, छ0ग0

"प्यार का फूल खिला था मुझमें"(कविता)

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छिड गयी ,जब से वो बात बन्धन की, कुछ सलोने सपन आने लगे थे मुझमें। उपवन में छू लेता जब भी कलियों को, अजीब सी गुदगुदाहट लगती है मुझमें। गुमसुॅ हो जाता उन चर्चा के खयाल पर, भ्रमर ,भी वो गीत सुनाने लगे थे मुझमें। ।1।         पहली मुलाकात मेरी जब से हुई तुमसे,         तभी से प्यार का फूल खिला था मुझमें।         चितवन को समझा, झुके इन नयनों ने,         दिल भी बगावत, करने लगा था मुझमें।         गेसुयें लहराई गालों पर,पहली नजर में          डसा ऐसा,बस नशा छा गया था मुझमें। ।2। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला किरंदुल, दंतेवाड़ा, छ0ग0

"वो दौर था…… ये दौर है। "(कविता)

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वो दौर था, विचार पारदर्शी भले न था, दृष्टि भी वैश्विक भले न थी, परपीड़ा में  वेदनाएं तो थी आपस में संवेदनायें तो थी, वाणी में लरजता थी, रिश्ते में वर्जनायें थी, वैसे सीमित साधन ,जरूर थे, पर ज्ञान साधना में मगरूर थे, समुचित ज्ञानार्जन की निष्ठा थी, बाधा में  नियति की आस्था थी, व्यस्तता बावजूद सुकून के पल ढूंढते थे, बडी बाधाओं में भी धैर्य से काम लेते थे, पूजा के बहाने पेडों की सुरक्षा होती थी, ग्रास के बहाने पशु प्रेम परीक्षा होती थी, ये दौर है, ये विचार पारदर्शी भले हैं,  वैश्वीकरण के भाव भले हैं, परपीड़ा की वेदनाएं चली गई, वे सारी संवेदनायें भी छली गई, वाणी भी शुष्कित हो गई, वर्जना अपरिभाषित हो गई , अब साधनों की कमी नहीं, सो ज्ञान की गति थमी नहीं,  नियति के सहारे कुछ नहीं,  पशु पेड की रक्षा कुछ नहीं, सुकून के पल प्रायः खत्म हुए, अधीरता चतुर्दिश बढ गये। Written by  ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला किरंदुल, दंतेवाड़ा, छ0ग0

"चिकित्सक दिवस"(कविता)

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इस जगत के सम्पूर्ण चिकित्सक, श्रद्धापूर्वक हम हैं नतमस्तक प्रणाम मेरी स्वीकार करो  बस इतना सा उपकार करो!! देवरूप में मान तुमको  हर प्राणी करता है आदर सम्मान, रोग व्याधि से मुक्ति दिला कर तुम देते हो अभयदान !! कर जोर कर आग्रह करती हूं मैं बारम्बार, तुम हो  विधाता ,जीवन दाता सुन लो मेरे सरकार!! ऊपर वाला जन्म देता है मगर नीचे का  कर्ता धर्ता हो तुम , मरणासन से खींच लाते हो दुःख, विषाद ,और  रोग हर्ता हो तुम !! चरक, सुश्रुत और जीवक चिकित्सक बड़े महान थे,  नई पीढ़ी ज्यादा विकसित हो उनके बड़े अरमान थे !! तुम हो उनके भावी पीढ़ी उनको और आदर मान दो उन महापुरुष रूपी ईश्वर को निष्ठापूर्वक दिल से सम्मान दो  वर्तमान के विकट घड़ी में  महामारी का घाव बड़ा है, कोविड जन जन के जान पर हाथ धो कर  पीछे पड़ा है !! इस धरा पर तुमसे बड़ा कोई नहीं जान का रखवाला  है, कुछ व्यभिचारी मानव इस  नाम को कलंकित कर डाला है!! अंतिम अनुनय है हमारी तुम सदा कर्मपथ पे अग्रसर रहना, अपनी सुरक्षा का भी ध्यान रखते हुए ,हम सबकी भी करना!!  अब तुम्हीं हो नईया ,तुम्हीं  खेवैया, तुम्हीं हमारी रक्षा कवच हो, इस दुनियां के झूठ ,छल के कारवां में 

"पिता"(कविता)

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घर का मुखिया  होता है पिता।  घर परिवार का होता है रचयिता।। ये घर के बोझ को कम  करते है सारा दुख  के समय में ढाल  बनके परिवार  को देते हैं सहारा।। ये बाहर  से लगते  हैं  सख्त  लेकिन  अंदर  से हैं नरम।  अपने बच्चों पे जब मुसीबत  आती है तो सबसे पहले लगाते हैं मरहम। । अपने घर परिवार के खातिर खुद  की  इच्छाओं  को करते है कुर्बान।  कम है जीवन  मे इनकी जितना भी करे गुणगान। । मां देती है संस्कार।  तो पिता  सिखाते हैं क्या है जीवन  का आधार। । ये घर-परिवार  के प्रति  रहते हैं ईमानदार।  हर पल दुआ  करते हैं सदा हरा रहे मेरा परिवार। । ये जीवन  के बगिया की रक्षा करते हैं बनके माली। ये अपने बच्चों  के जीवन  में लाते हैं  सदा खुशहाली। ।  पिता अपने बच्चों के जीवन  को करते हैं  रोशन।  पिता की आशीर्वाद  से ही बच्चों का सफल  होता है जीवन। । बच्चों को ये देते हैं जीवन मे ज्ञान। परिवार  की रखते है सदा मान।। पिता ईमानदारी से करते हैं अपना काम  पिता के चरणों  मे मेरा सत् सत्  प्रणाम। । Written by  यज्ञसेनी साहू

"ज़ख़्म"(कविता)

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मुझे इल्म नहीं  उनके ज़ख्मों का  जो घायल होते रहें  मेरी तिमारदारी में  मरहम लगाते लगाते  मेरे ज़ख्मों पर  खुद ही ज़ख्म बन गए  बेखबर रहें हम अब तलक  ज़ख़्म उनका नासुर बन गया  इंतजार रहा होगा उन्हें  मेरे ठीक होने का  और अब वो खुद बीमार हो गए  इल्म नहीं था उनके जख्मों का  वरना ............................... हम अपनी जान ही ले लेते  मगर उन्हें दर्द नहीं देते । Written by  सरिता कुमार

"बाजीगर"(कविता)

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बैठी हूँ आसमाँ तले सामने लहरों का बाजार है, उन्मादित लहरों के दिखते अच्छे नही आसार हैं। उफनाती लहरों से कह दो राह मेरी छोड़ दे, बैठी हूँ चट्टान बन कर रुख अपना मोड़ ले । ज्वार भाटा से निकली प्रचंड अग्नि का सैलाब हूँ, हैवानियत को जलाकर खाक करने वाली आग हूँ। बार बार  पटकी  गयी  हूँ  अर्श  से  मैं  फर्श  पर, बार बार  टूटी  हूँ  टूट  कर  बिखरी  हूँ  मैं। खो दिया  है  सब  कुछ  जिसने  इस  जमाने मे , कभी  न  दम  लगाना  तुम   उन्हें  आजमाने में । गिर जो  गए  जमीं  पर  उन्हें  कमजोर न समझना, ऊंची  उड़ान  की  ये  तैयारी  होगी  उनकी। गिर कर  उठने  वालों  की दिशा  होती कुछ और है, खो कर  पाने  वालों  का नशा  होता कुछ  और है। गिर कर उठने  की  जिसमे  है  हिम्मते  जिगर, वही  है इस  जहाँ  का  दरियादिल  बाजीगर। Written by  मंजू भारद्वाज

"मेरा नमन"(कविता)

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एक नमन मेरा उन लोगों को  जो हल समस्या का ढूंढ रहे  मलहम बनकर भरते गमों को  जिस मार्ग से निकल पड़े  एक नमन मेरा उन लोगों को एक नमन मेरा उन लोगों को जो हल समस्या का ढूंढ रहे|| पेड़-पौधों कोई जल बचाते कूड़ा-कचरा बीन रहें  सड़कों के गढ़ढ़े भरते कोई तो  हेलमेट जग में बाँट रहे  एक नमन मेरा उन लोगों को एक नमन मेरा उन लोगों को जो हल समस्या का ढूंढ रहे|| निशुल्क शिक्षा देते-दिलाते  सक्षम न जिनके माँ-बाप रहे  गोद भी लेते देख भविष्य   जीवन उसका संवार रहे  एक नमन मेरा उन लोगों को एक नमन मेरा उन लोगों को जो हल समस्या का ढूंढ रहे|| सेवा करते वृद्धजनों की  गरीबों में, चादर-कंबल बाँट रहे  भंडारे हर रोज है करते  न जग में अब कोई भूखा रहे एक नमन मेरा उन लोगों को एक नमन मेरा उन लोगों को जो हल समस्या का ढूंढ रहे|| एक नमन मेरा लोगों को  जो रक्षक बन तैयार खड़े  प्राण गँवाते देश की खातिर  सीमा पर बन ढाल खड़े  एक नमन मेरा उन लोगों को एक नमन मेरा उन लोगों को जो हल समस्या का ढूंढ रहे|| पशु-पक्षियों की सेवा करते अनमोल प्रयास जो करते रहे होती, विलुप्त प्रजातियों की उनको चिंता समर्पित खुद को करते रहे एक नमन मेरा उन लोगों क

"पच्चीस साल बाद"(कहानी)

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 पच्चीस साल बाद  आज एक ऐसी सच्ची घटना लिखने का साहस जुटा रही हूं जिसका अंजाम मुझे मालूम नहीं लेकिन दुनिया को बताना चाहती हूं कि जब कोई युवती मां बनती है तो वो सिर्फ "मां " ही नहीं बनती है बल्कि वो एक योद्धा बन जाती है । उसे अपने बच्चें के पालन-पोषण और समुचित परवरिश के लिए किस किस तरह की लड़ाई लड़नी पड़ सकती है यह किसी ने सोचा भी नहीं होगा । 21वीं सदी में भी ऐसे रूढ़ीवादी और दकियानूसी विचारधारा के लोग हो सकते हैं यह बड़ी हैरानी की बात है । मगर सच है एक मां को अपने बच्चें के जीवन रक्षा के लिए लगाए जाने वाले टीकाकरण अभियान को सफल बनाने एवं बच्चें को सुरक्षित करने के लिए एक युद्ध लड़ना पड़ा था । शहर में जन्मी और पढ़ी लिखी लड़की की शादी गांव में हो जाती है । ऐसे गांव में जहां चापा कल चला कर पानी भरना पड़ता था और बिजली की रौशनी और पंखे की हवा के लिए छः छः महीने इंतजार करना पड़ता था । इसका तो एक विकल्प था जेनरेटर खरीद लिया गया और घर को रौशन कर लिया गया लेकिन कुंठित विचार और रूढ़ीवादिता को खत्म करना आसान नहीं था । दो दिन यानी की 48 घंटे बहस के बाद भी नतीजा कुछ नहीं निकला । किसी भी पर

"रचना"(कविता)

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छोटी  सफलता  में खुश हो, कहां तेरा ध्यान है ये  तो तेरा  पहला  कदम है, छूना  आसमान है सब बैठे रहे, तुमने  अंधे को सड़क  पार कराई काम छोटा था,पर लक्षित हैं,इरादे तेरे महान हैं अभी तो बादल पार किए हैं बहुत  दूर जाना है परों  को संभाले  रखो, चांद तक तेरी  उड़ान है अमृत  दूसरों को  दे कर, उनका  गरल पीते हो तुम  नहीं रुकने  वाले हो, यह हमारा  ऐलान हैं वाह, अपनी आंखों में बसाते  हो गैरों के आंसू बातें  तेरी बातें नहीं, ये तो खुदा  का फरमान है रोज तुम  जीते हो ओर  मरते हो औरों के लिए तेरा समग्र व्यक्तित्व, इंसानियत  का अरमान हैं बेशक  मुझे पूरा यकीन है  तेरी काबिलियत पर भेद दोगें  लक्ष्य तुम, हाथों में  तेरे तीर कमान है हश्र हमने देखा कंस का,रावण का,सिकंदर का मिट्टी हो गये,फिर इंसान  को काहे का गुमान हैं मेरे सारे दोस्त अरबों में खेल रहे हैं, बेईमानी से  मैं इन  सब  से  मालामाल हूं मेरे पास  ईमान है Written by  कमल श्रीमाली(एडवोकेट )          नेहरु काॅलोनी फालना           जिला पाली राजस्थान

"एक नई शुरुआत करते हैं"(कविता)

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अंधियारी रात को अलविदा बोल उगते सूरज के साथ में एक नई शुरुआत करते हैं  फिर से जिंदगी का आगाज करते हैं पुराने रिवाजों की बेड़ियां तोड़ लोगों की सोच से आगे बढ़कर जिंदगी को नया आयाम देकर  फिर से एक नई शुरुआत करते हैं लोगों के उलाहाना से दूर कानों में रुई ठूंस कर सब को नजरअंदाज करके फिर से एक नई शुरुआत करते हैं तुम चल सको तो साथ चलो राहों में मेरे हमसफ़र बनो मंजिल तलाशने का सफर एक नई शुरुआत करते हैं Written by  कमल  राठौर साहिल

"खरपतवार"(कविता)

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गली के नुक्कड़ से लेकर हुक्मरान के ताज तक दूर दूर तक जहां तक मेरी नज़र जाती है चारों दिशाओं में खरपतवार  दीमक की तरह  मुल्क को चाट रही है अंदर ही अंदर  देश को खोखला कर रही है मैं बहुत प्रयास करता हूं इस धधकते ज्वालामुखी को  शांत करने के लिए। जिस दिन यह ज्वालामुखी फूटेगा मैं स्वयं बुद्ध की राह पर चल पड़ूंगा मेरी दिशा मोक्ष प्राप्ति कि नहीं खरपतवार को जड़ से  उखाड़ फेंकने की होगी। मैं निरंतर प्रयास करता रहूंगा जब तक यह मुल्क  अपने पुराने आवरण में  नहीं आ जाता जब तक यह मुल्क सोने की चिड़िया  नहीं बन जाता  मैं खरपतवार जड़ से  उखाड़ता रहूंगा अपनी अंतिम सांस तक Written by  कमल  राठौर साहिल

"सुझाव"(कविता)

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सब जगह आना जाना नहीं चाहिए यूं ही मिलना मिलाना नहीं चाहिए इक तज़ुर्बा मिला है बुज़ुर्गों से ही रोज़ महफ़िल सज़ाना नहीं चाहिए राज़ सबसे बताना नहीं चाहिए रोज भिड़ना भिड़नाा नहीं चाहिए ख़ुद को ख़ुद में समझना ज़रूरी मग़र  सब पे उंगली उठाना नहीं चाहिए इंसान ही नहीं इंसानियत होनी चाहिए मिलो न मिलो मिलन की आस होनी चाहिए चार दिन की ज़िंदगी  में मुंह फुलाए घूमते हैं दिल में मथुरा काशी और प्रयाग होना चाहिए ख़ैरियत के साथ-साथ कैफ़ियत होनी चाहिए हैसियत के साथ-साथ मुरव्वत होनी चाहिए दोस्ती वही है जो आफ़त  में खड़ी हो कुरब़त के साथ-साथ अज़मत होनी चाहिए फूल के साथ-साथ कांटे भी रखना चाहिए जमीं को देखकर फ़लक पे उड़ना चाहिए सुख-दुख का आना जाना कब रुका है या रुकेगा आंसू बहे तो बहे धैर्य रख मुस्कुराना चाहिए कैफ़ियत-हाल-चाल ,अज़मत-भलाई ,कुरब़त-करीबी फ़लक-आकाश  Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"बुढ़वा मंगल"

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 जेठ मास मंगल प्रबल, किरिपा बरसत जात।    बुढ़वा मंगल अन्त में,  सुख समृद्धि भर जात।।           हाथे ध्वज औ गदा बिराजत।           कांधे   मूंज   जनेऊ   छाजत।।            हिरदय महि  बसते  रघुनंदन।            कृपा करौ हे मारूति- नन्दन।।            बालकाल रवि भक्षण किययू।            सृष्टि समस्त अन्धमयि  भययू।।            सागर लांघत भय नहि आवा।           प्रभु मुदरी मुंह माहि  सिरावा ।।            जय जय  हे अंजनि के लाला।           बेगि   हरौ    सगरौ   जंजाला।।           ध्यावत जे जन नित चित लाई।           सुख-सम्पत्ति घर म भरि जाई।।           शनि प्रकोप नहि काया माही।           हनुमत-कवच बचावा ताही।।           भूत-प्रेत  निकट नहि आवत।          लाल-लगोंटा लखि लखि भागत।।           संकट समय तुमहि जे ध्यावै।           संकट कटै तुरत हल     पावै।।          बिनु तुम्हरे जन राम न पावै।          हनुमत सुमिरि राम ढ़िंग जावै।।  दीन-हीन-साधन-विमुख, नहि कौनेव उपमान।  रक्षा   हमरिउ    कीजिये, पवनपुत्र     हनुमान।। Written by  ज्ञानेन्द्र पाण्डेय

"नवगीत गाना चाहता हूँ"(गीत)

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उगता गया हूँ , इस दोहरे चरित्र से , अब तो ख़ुदी में जीना चाहता हूँ , नवगीत गाना चाहता हूँ ।। आपा-धापी की लहर में , रिश्ते-नाते बह रहे हैं अपने-पराये की नज़र में , तार-तार हो रहे हैं स्वार्थ की लंबी कतारें , इस छोर से उस छोर तक घृणा के उगते शज़र में , विष- बेलियाँ लिपटा रहे हैं तस्वीर धुंधली , मन के दर्पण की , हटाना चाहता हूँ ।। नवगीत गाना --- शक्ति पाते भूल बैठा , इंसान सारी सरहदें टूटतीं पल-पल रहीं , विश्वास की यूँ हर जदें  कौन माने ? कौन जाने ? रात-दिन कितने बिके बंद मुट्ठी जब भी खुली , गुलजार दिखते मयकदें  बेबसी में भीगीं पलकें ही , पोंछना चाहता हूँ ।। नवगीत गाना  ----- न समझ पाये प्रकृति , बस अंजान यूँ तकते रहे जब तमाचा पड़ा सीधे , बस गाल यूँ मलते रहे रक्षक ही भक्षक बने , ताड़ना नित-नित , बदले तरीके हिम- दु:खद अवसाद में , बस जमते रहे , गलते रहे लेकर हृदय में तीव्र ऊष्मा , अब पिघलना चाहता हूँ ।। नवगीत गाना---- मज़मा जमाये बैठे हैं , शराफ़त का खोले पिटारा लूटते मौका मिले जब , दिख रहा चहुँ-दिशि नज़ारा कागजों से पेट भरते ,दया का यूँ ही आडंबर रचते  ज़ज़्बात की बाज़ीगरी का , खेल खेले मिल